गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

फाल्के पर फिल्म, वो भी जब सौ साल पूरे होने को हैं....

भारत में फिल्मों की शुरूआत करने वाले शख्स- धुंडीराज गोविंद फाल्के यानि दादा साहब फाल्के। उन्होंने कैसे इन चलती चित्रों की शुरूआत भारत में की, इस विषय को बड़ी रोचकता से बड़े पर्दे पर उभारने का काम किया है मराठी फिल्मकार परेश मोकाशी ने। मराठी फिल्म हरिश्चंदाची फैक्ट्री (हरिश्चंद की फैक्ट्री) के माध्यम से भारतीय फिल्मों के जनक दादा साहब फाल्के के विषय में काफी कुछ जाना जा सकता है। एक तरह से यह फिल्म उनके प्रति एक सच्ची श्रद्धांजलि भी हैं।
भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद को बनाने में दादा साहब फाल्के को किस-किस तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा- इस विषय को इस फिल्म में बखूबी दिखाया गया है। 1911 में फाल्के जब जर्मन जादूगर से सीखा हुआ जादू दिखाने का काम करते थे, इसी क्रम में वहां से भागते हुए एक टेंट में अंग्रेजों को कुछ नया नाटक या कुछ चीज देखते हुए देखा। बेटा के मना करने के बाद भी दो आना का टिकट खरीद पहली बार चलती हुई तस्वीरों को उजले पर्दे पर देखा। ईसा मसीह पर बनी फिल्म को देखकर वे इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने भी भारतीय देवी-देवताओं को उजले पर्दे पर चलती चित्रों के माध्यम से दिखाने का निश्चय उसी वक्त कर लिया। इसी चीज ने उन्हें फिल्म बनाने की प्रेरणा दी।
इन चलती हुई तस्वीरों को समझने के बार-बार सिनेमा देखना, इसे सीखने के लिए पहले प्रोजेक्टर रूम में जाकर समझना, किताबों को खरीदना और यही जूनुन उन्हें लंदन ले जाता है। पूरे तथ्यों को कुछ कॉमेडी का पुट देते हुए फिल्म में काफी अच्छे तरीके से दिखाया गया है।
इस नयी विधा को सीखने के लिए दादा साहब को किस किस तरह की मुसीबतों का सामना करना पड़ा, इस चीज को इस फिल्म में भले ही दिखाया गया हो, लेकिन इस चीज पर सिनेमा जगत का ध्यान भारत में फिल्मों के 100 साल पूरे होने जा रहे है, तब यह चीज हमें देखने को मिल रही है।
ओसियान फिल्म फेस्टिवल के दौरान पॉपुलर डिमांड के कारण फिल्म की स्क्रीनिंग एक बार फिर से हुई, तब जाकर यह फिल्म देखने का मौका मिला। फिल्म खत्म होने के बाद तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा सभागार गूँज उठा। फिल्म के निर्देशक, निर्माता और मिस्टर और मिसेज की भूमिका निभाने वाले कलाकारों को मिलने वाला स्टैंडिंग ओवेशन इस बात को सिद्ध कर रहा था कि वाकई फिल्म काफी अच्छी थी। इस फिल्म ने उस दौर (1911-1930) को जीवीत कर दिया था, जिस वक्त भारतीय फिल्म की फैक्ट्री की नींव पड़ी और इसकी नींव को डालने वाले व्यक्ति की जीवटता को भी इस बखूबी से चित्रित किया कि यह फिल्म दर्शकों को बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हैं।

सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

डीटीसी में सफ़र करना हुआ महँगा

दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार का दिल्लीवासियों को दीवाली और छठ का तोहफा.. अब आपको एक जगह से दूसरे जगह सफर करने के लिए अपनी जेब से ज्यादा खर्च करना होगा। अब तक चले आ रहे डीटीसी में चार स्लैब वाला भाड़ा 3,5,7,10 रूपये की जगह यह अब तीन स्लैब में 5,10,15 रूपये का हो गया हैं। ऐसा इसलिए किया गया है क्योंकि सरकार को डीटीसी का घाटा पूरा करना है। डीटीसी को वित्तीय वर्ष 2008-09 के दौरान 575 करोड़ रूपये का घाटा हुआ था। सरकार को भाड़ा बढ़ाने से सालाना 400 करोड़ रूपये का फायदा होगा।
अब दिल्ली में एक जगह से दूसरे जाने में तीन किलोमीटर तक 5 रूपये, तीन से दस किलोमीटर का सफर करने के लिए यात्रियों को 10 रूपये और इससे ऊपर की यात्रा करने में 15 रूपये खर्च करने होंगे। यह ब्लॉग लिखे जाने तक दिल्ली की सड़कों पर दौड़ने वाली ब्लूलाइन बसों के सभ्य सरीखे से बढ़ा हुआ भाड़ा वसूलने भी शुरू कर दिया होगा। अब तो ब्लूलाइन के मालिकों की कुछ दिनों के लिए ही सही चांदी तो हो गयी। जब तक इन बसों को सड़कों से हटाया जाएगा, तब तक तो इनके मालिकों के साथ-साथ ड्राईवर और कंडक्टरों की तो बल्ले-बल्ले है।
सरकार ने ये कदम भले ही डीटीसी का घाटा पूरा करने के लिए उठाया हो, लेकिन इससे यात्रीगण अब मेट्रो के सफर को ज्यादा तरजीह देंगे। जो कि मेट्रो के लिए अच्छा हो सकता है, लेकिन वहां भी यात्रियों की संख्या बढ़ने के कारण काफी परेशानी आने वाली हैं।

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2009

सीतामढी की छठ

लोक-आस्था के पर्व छठ की धूम बिहार राज्य के किसी भी गाँव-शहर में देखने को मिल जायेगी. बात करते है सीतामढी में लक्ष्मणा नदी के तट पर की जाने वाली सूर्य उपासना की. सबसे पहले तो यह बता दूँ की नदी को आम बोल-चाल की भाषा में लखनदेई के नाम से जाना जाता है.. और नदी के तट पर ही सूर्य मंदिर स्थित है, जिसमे साल भर में कम से कम एक बार तो चहल-पहल रहती ही हैं. सज्जन पूजा समिति हो या छठ पूजा समिति- दोनों समितियां शहर में नदी किनारे घाटों पर, पुल पर साथ ही साथ सड़क पर काफी दूर तक लाइटिंग की व्यवस्था करती है, जिससे की शहर का मुख्य हिस्सा रौशनी से जगमगा उठता है.

घाटों पर सप्ताह-दस दिन पहले से ही लोग अपने अपने एरिया को रेखांकित कर देते है, जहाँ पर वो संझिया घाट और भोरिया घाट पर सूर्य भगवान् को अर्घ्य दे सके. जगह को घेरने के लिए भी काफी जद्दोजहद करनी पड़ती है. जगह घेर लेने का बाद वहां टेंट लगाना. बड़ी बड़ी चौकियों को ठेले पर लाकर घाट के किनारे लगाना, जिस पर पूजा सम्बन्धी सामग्री डाला में रख इन चौकियों पर करीने से लगाया जाता है. अस्सी के दशक में लोग अपने दुकानों के बैनर बनवाकर टेंट पर लगवा देते थे, जिससे की उनके व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का प्रचार भी हो जाता और सगे सम्बन्धियों को अपना टेंट खोजने में परेशानी भी नहीं होती. लेकिन अब जब की प्रचार की इतनी जरुरत है, ऐसे प्रचार-युग में लोग ऐसा नहीं कर रहे... यह मेरी समझ से बाहर है.

विश्व मैं छठ ही ऐसा एक पर्व हैं जिसमें न सिर्फ उगते हुए, बल्कि डूबते हुए सूर्य की भी पूजा की जाती है। और सबसे पहले डूबते सूर्य की पूजा ही होती है। लखनदेई नदी के दोनों किनारे लगने वाले टेंट में श्रद्धालुओ की भीड़ देखने लायक होती हैं. टेंट में समूह में गीत गाती महिलाएं, बाहर नदी के किनारे वाले इलाके में पटाखे जलाते बच्चे, लाउडस्पीकरों पर बार बार सावधानी से पटाखा छोड़ने की सूचना लोकगीतों और भजनों के बीच आते रहती है. पूरा वातावरण भक्तिमय हो जाता हैं. शाम के वक़्त सूर्य को अर्घ्य देने के बाद जल्दी-जल्दी घर की ओर लौटते लोग.. सुबह जल्दी आने के लिए. वैसे शाम के वक़्त बाज़ार में कुछ खट्टा-मीठा खाने की ललक किरण सिनेमा चौक और उनके आस-पास लगने वाली दुकानॉ पर या बसुश्री सिनेमा के पास लगने वाली नयी दूकानों पर लोगों की भीड़ खींची चली आती है.

सुबह जल्दी उठकर ठण्ड के शुरूआती दिन में स्नान कर घाट पर जाने के लिए घर से निकलते लोग.. घाटों से आती लोक संगीतो की गूँज, रौशनी से जगमगाती सड़के और नदी के किनारे के घाट. पुल से जाकर नदी का नजारा देखते ही बनता है. नए नए कपडो में घाट पर आते लोग. लोगों की संख्या बढ़ने के कारण घाट का विस्तार लीची बगान की तरफ सरस्वती विद्या मंदिर की बिल्डिंग तक और बाईपास वाले पुल की तरफ मोक्ष-धाम के आगे तक टेंट का विस्तार देखते ही बनता है. अब तो एक छोड़ से दूसरे छोड़ तक जाने में काफी समय लगाने के कारण जाना संभव ही नहीं हो पाता.

हमारे लिए या यूँ कहे की हम युवाओं के लिए घाट के किनारे पुल पर भोरिया अर्घ्य के दिन घूमने के अलावा लिटरली कोई काम नहीं होता था. हाँ, सूर्य के उदय होने के समय जल देकर प्रसाद लेना तो नहीं ही भूलते थे. वैसे भी सज्जन पूजा समिति के उदघोषक की आवाज़ आज भी कानो में ताजा है- बाँध पर श्रद्धालु भीड़ नहीं लगाये, चलते-फिरते नज़र आये. भगवान् भास्कर को जल देने के बाद घाट पर प्रसाद लेने के बाद घर लौटने के क्रम में सबसे पहला काम पैरों को धोने का काम जानकी प्लेस के कल पर धोने के काम करना होता हैं. फिर वापस लौटना.

कुछ ऐसी ही होती है हमारे शहर में छठ पर्व की चहल-पहल. इस बार भी कमोबेश यही चहल-पहल होगी. कर्म-भूमि पर दीपावली मानाने वाले मातृ भूमि पर छठ पर्व मनाने के लिए जरुर जाते है. यही आस्था है. यही लोग है जो कहीं भी हो अपने जड़ो से जुड़े रहने का सबूत हर साल देते ही हैं.

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

50 साल का हुआ दूरदर्शन

भारत में पत्रकारिता का इतिहास लगभग डेढ़ सौ साल पुराना है। पत्र-पत्रिका से शुरू होने वाली पत्रकारिता को समय-समय पर नये माध्यमों यथा- रेडियो, टेलीविजन और इंटरनेट ने एक नया आयाम प्रदान किया । इसी कड़ी में दृश्य-श्रव्य माध्यम के रूप में टेलीविजन ने भारत में 15 सितंबर 1959 को आधे घंटे के कार्यक्रम के साथ दस्तक दिया, तो किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि पचास साल के भीतर टेलीविजन देश में इतना लंबा सफर तय कर लेगा ।

सन् 1959 में जब संयुक्त राष्ट्र के सांस्कृतिक और शैक्षिक संगठन यूनेस्को ने भारत सरकार को बीस हजार डॉलर और 180 फिलीप्स कंपनी के टीवी सेट्स दिए थे तब जाकर भारत में पहली बार इस जादुई बक्से का आगमन हुआ । पहली बार दिल्ली में दूरदर्शन पर आधे घंटे का कार्यक्रम प्रसारित हुआ था, तब से लेकर शुरूआत के दो दशक में इसकी विकास प्रक्रिया काफी धीमी रही । अस्सी के दशक की शुरूआत में एशियाई खेलों के प्रसारण, रंगीन टीवी सेट्स के आगमन और 1983 के क्रिकेट विश्व कप के प्रसारण ने तो लोगों में दूरदर्शन के प्रति एक गजब का आकर्षण पैदा किया । इसी दशक में प्रयोगधर्मिता के आधार पर शुरू हुए तरह-तरह के मनोरंजक, शैक्षणिक ,सामाजिक,धार्मिक कार्यक्रमों की शुरूआत कर दूरदर्शन ने दर्शकों के बीच अपनी गहरी पैठ बनायी । आज भी अगर टीवी धारावाहिकों की बात करे तो हमलोग, बुनियाद, नुक्कड़, मालगुडी डेज जैसे धारावाहिकों ने लोगों का मनोरंजन करते हुए सामाजिक ताना-बाना समझने में मदद की तो वहीं रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक धारावाहिकों ने टीवी की लोकप्रियता और प्रचार-प्रसार में काफी अहम् भूमिका निभायी । सांस्कृतिक पत्रिका के रूप में सुरभि ने दर्शकों की सहभागिता में नए रिकॉर्ड बनाए । भारत एक खोज- जैसे धारावाहिकों ने देश के इतिहास की एक अनुपम तस्वीर प्रस्तुत की । अगर मनोरंजन के कार्यक्रमों की बात रविवार को प्रसारित होने वाली फिल्में और सप्ताह में दो दिन आने वाले फिल्मी गीतों के कार्यक्रम भी दर्शकों को खूब खींचते थे । कृषि-अर्थव्यवस्था वाले देश भारत में किसानों की समस्या को हल करने वाले कार्यक्रम कृषि-दर्शन ने भी किसानों का काफी मार्गदर्शन किया । इन सभी कार्यक्रमों ने उस वक्त दूरदर्शन को संपूर्णता प्रदान करने के साथ-साथ देश के सभी वर्गों की जरूरतों को पूरा करने का काम किया ।

सार्वजनिक प्रसारणकर्ता के रूप में पचास साल पहले एक छोटे से ट्रांसमीटर से अपना कार्यक्रम शुरू करने वाला दूरदर्शन आज के दिन 31 चैनलों का प्रसारण करता है, जिसमें डीडी नेशनल, डीडी न्यूज़, डीडी भारती, डीडी स्पोर्ट्स, डीडी उर्दू और डीडी इंडिया प्रमुख हैं । इसके अलावा ग्यारह प्रादेशिक भाषाओं के चैनल और बारह राज्य नेटवर्क है । आज के दिन दूरदर्शन की अपनी डीटीएच यानि डायरेक्ट टू होम सेवा भी है ।

मनोरंजन के साथ-साथ अगर देश-दुनिया की खबरों से दृश्य-श्रव्य माध्यम पर रू-ब-रू कराने का काम पहले-पहल किसी ने किया तो वह दूरदर्शन ही हैं । 15 अगस्त 1965 को पहली बार समाचार बुलेटिन का प्रसारण किया गया था । प्रतिमा पुरी को देश की पहली समाचार-वाचिका होने का गौरव प्राप्त हैं। अस्सी-नब्बे के दशक में रात 8.40 पर प्रसारित होने वाला बुलेटिन ही हमें सबसे पहले उस वक्त की ताजा-तरीन खबरें देता था । यहाँ तक की उस समय के समाचार-वाचकों के नाम और तस्वीरें भी दर्शकों को अभी तक याद होंगी ।

अपने पचास साल की विकास यात्रा के दौरान दूरदर्शन ने सूचना, शिक्षा ,मनोरंजन के विभिन्न कार्यक्रमों को देने के अलावा नब्बे के दशक में निजी चैनलों के आने के बाद भी अपना क्रमबद्ध विकास जारी रखा । दर्शकों की माँग को देखते हुए मनोरंजन के चैनल के रूप में डीडी मेट्रो , खेल चैनल के रूप में डीडी स्पोर्ट्स और अंर्तराष्ट्रीय दर्शकों के लिए डीडी वर्ल्ड (बाद में चलकर डीडी इंडिया) जैसे चैनल शुरू किए गए । निजी समाचार चैनलों के आने के बाद एक चौबीस घंटे के समाचार चैनल की आवश्यकता महसूस की गयी, इसी को देखते हुए 2003 में डीडी मेट्रो को डीडी न्यूज़ में परिणत कर दिया गया । आज के दिन डीडी न्यूज़ पर 19 घंटे लगातार समाचार और इससे जुड़े कार्यक्रमों का सीधा प्रसारण होता हैं । जहाँ तक खबरों की विश्वसनीयता की बात है तो आज भी लोगों का भरोसा डीडी न्यूज़ पर ही हैं ।

समय के अनुसार व जरूरत को देखते हुए दूरदर्शन ने अपने को तकनीक और प्रसारण की गुणवत्ता के मामले में अपने को बदलने की हरसंभव कोशिश की हैं । 1982 के एशियाई खेल ने जहाँ देश में रंगीन टेलीविजन के रूप में नयी चीज आयी थी, उसी तरह 2010 में होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों को एचडीटीवी (हाईडीफीनिशन टेलीविजन) पर प्रसारित किया जाएगा । इस तरह देश में नए सिग्नल पर प्रसारित होने वाले काम को पहली बार डीडी स्पोर्ट्स के द्वारा ही अंजाम दिया जाएगा ।

पिछले पचास साल में लोक-प्रसारक के रूप में दूरदर्शन ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है । शुरूआत के दिनों से लेकर नब्बे के दशक के मध्य तक भारतीय दर्शकों के मन-मस्तिष्क पर इसने एक छत्रराज्य किया । निजी चैनलों के बाढ़ के बाद भी देश के 92 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या तक इसकी पहुँच हैं । दूरदर्शन आज के दिन भी लोगों की जरूरतों को पूरा करने के अलावा उन्हें सही ढंग से शिक्षित करने के अलावा स्वस्थ मनोरंजन प्रदान कर रहा हैं । अपने व्यावसायिक हितों को दरकिनार रखते हुए दूरदर्शन एक राष्ट्रीय लोक-प्रसारक के रूप में अपनी भूमिका बखूबी निभा रहा है और स्वर्ण जयंती वर्ष में यही आशा करते हैं कि आगे भी अपनी यह भूमिका और अच्छे ढ़ंग से निभाने का काम करेगा ।