शनिवार, 24 मई 2008

कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे....

एक छोटे शहर से महानगरों की ओर आने वाले युवा अपने आँखों में ना जाने कितने सपने लेकर आते हैं.कुछ अलग करने की चाहत. भीड का हिस्सा ना बने रह जाये,इसके लिये कोई भी रास्ता अख्तियार करने के लिये तैयार. हर कीमत पर सफलता पाना ही उनका एकमात्र मकसद होता हैं.इसके लिये अपने साथियों का साथ मिले तो ठीक,नहीं तो ऐसे साथी की तलाश शुरू कर देते हैं जो कि उनके सपने को साकार करने में मदद करें.बस यही से शुरू होती हैं प्रोफेशनल रिश्तों की शुरूआत. सफलता मिली,पुराने साथी छुटे और नये प्रोफेशनल दोस्तों की तलाश जो कि इस सफलता को बनाये रखें.

कभी कभी पुराने साथी से छुटकारा पाना इतना आसान नहीं होता हैं,तो उस से मुक्ति पाने के लिये कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं.मीडिया में महानगरों की खबरों की अधिकता होने के कारण हर क्राइम की स्टोरी किसी ना किसी तरह जगह पा ही जाती हैं. पिछले कुछ दिनों की घटनाओं को देखे तो हम पाते हैं कि किस तरह खून के रिश्ते हो या महानगरों में बनने वाले नये नये रिश्ते हो, सभी में खून ही बाहर निकलता हुआ नजर आता हैं.

देश से बाहर भी विदेशों में जाकर पढने वाले भारतीय छात्रों पर होने वाले हमले भी इसी तरफ इशारा करते हैं. घर से हजारों मील दूर अपने सपनों को साकार करने के लिये जाने वालों का ऐसा हस्र निश्चय ही चिंताजनक हैं.कहने को तो पूरा संसार एक "ग्लोबल विलेज" हो गया हैं. लेकिन क्या यहाँ अपने गाँवों में दिखने वाला अपनापन दिखायी देता हैं? कतई नहीं. सूचना तकनीक से सिर्फ जुडना ही हमारे लिये पर्याप्त नहीं हैं एक गाँव की अवधारणा के लिये.यही हाल हमारे महानगरों का भी होता जा रहा हैं.

महानगरों में बनने वाले दोस्ती के रिश्ते भी अजीब होते जा रहे हैं. जब तक साथ पढ रहे हैं या काम कर रहे हैं तब तक रिश्तों में गरमाहट बनी रहती हैं,लेकिन ज्यों ही अपने कैरियर की सीढी चढने लगे तो तो ये रिश्ते बेमानी होने लगते हैं. तब यहाँ दोस्ती को निभाने का जिम्मा सोशल नेटवर्किंग साइट के जरिये होता हैं. अब तो दोस्तों से वर्चुअल वर्ल्ड में ही मिलना अच्छा लगता हैं.यही दोस्ती निभाने का नया रूप हैं,नया ढंग हैं. ना अब वह गरमाहट रही, ना ही वह अपनापन. तो कैसे निभेंगे ये रिश्ते.सोचने की बात हैं.

शुक्रवार, 16 मई 2008

ये वर्चस्व की लडाई हैं.....

एक जंग शुरू हो चुकी हैं सितारों के बीच, ज्यादा से ज्यादा चमकने की. अपनी चमक से दूसरे सितारे की चमक को फीकी करने की. इसके लिये उन्हें किसी भी हद तक क्यों ना जाना पडे. पहले यह काम मीडिया खुद-ब-खुद कर दिया करता था.लेकिन अब "न्यू मीडिया" का सहारा लेकर ये सितारे खुद ही अपने चमक को दूसरे की चमक से ज्यादा बता रहे हैं. जी हाँ, बात हो रही हैं आमिर खान के ब्लॉग की,जिसमें उन्होनें पंचगनी में छुट्टी बीताने के बारे में लिखा. इसमें बात ही बात में एक कुत्ते का भी जिक्र आ गया.जो कि पालतू होने के कारण आमिर के तलवे चाटता हैं और साथ ही साथ उनका ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश भी करता हैं.
अगर इतना ही जिक्र हुआ होता तो किसी का ध्यान इस तरफ जाता भी नहीं,और ना ही यह खबर बनती. सब गडबडी नाम को लेकर हो गयी. कुत्ते का नाम के कारण ही सब पंगा हो गया. कुत्ते का नाम शाहरूख रखा गया था उस कुत्ते के पूर्ववर्ती मालिक के द्वारा. इस ब्लॉग को आमिर ने बैड टेस्ट में लिखा हैं.यह बात तो स्पष्ट रूप से दिखती हैं. साथ ही साथ इस पर लिखे गये कमेंट से प्रशंसकों के गुस्से को भी साफ साफ देखा जा सकता हैं.
आमिर और शाहरूख की यह प्रतिद्वंदिता पिछले कुछ दिनों से काफी सुर्खियां भी बटोर रही हैं.हर बार निशाना दागने का काम आमिर ने ही किया हैं. लेकिन बडी संजीदगी के साथ शाहरूख हर बार दोस्तों के बीच ऐसी बात होती रहती हैं कह कर टाल जाते हैं. इस बार भी नाम पर कॉपीराइट ना होने का हवाला देते हुये बात को टाल गये.
इसी तरह अपने विरोधियों को जवाब देने के लिये भी सदी के महानायक अमिताभ बच्चन भी ब्लॉगिए हो गये हैं. जिस छवि के कारण उन्होनें अपने को इस फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित किया , वही छवि फिर से बनाते हुये अपनी चमक को कम नहीं होना देना चाहते. एक तरह से उन्हें जिस बात का डर सबसे ज्यादा सताता हैं वह हैं - ना पहचाने जाने का डर. यह चीज बडे सितारों में जल्दी से घर भी कर जाती हैं.
एक तरह से यह लडाई हैं अपने को दूसरे से ऊँचा दिखाने की,दूसरे को पूरी तरह से खारिज करने की. ये सितारे कहीं ना कहीं यह भूल जाते हैं कि इनको आसमान पर बैठाने का काम दर्शकों ने किया हैं ना कि ये अपने से इतने बडे सितारे बन गये. अमिताभ हो, आमिर हो या शाहरूख हो, सभी दर्शकों के कारण ही उस मुकाम पर हैं,जिस पर होने का सपना हर कोई देखा करता हैं. ये सितारे एक दूसरे को खारिज करने के चक्कर में दर्शकों की नजर में अपने को खारिज कर रहे हैं. दर्शकों का क्या हैं वो नये सितारे खोज लेंगे.

पल भर में बदलते नायक,इसमें एक हरभजन भी.

थप्पड मामले में हरभजन सिंह को मिली सजा उनके लिये सबक हैं.सबसे पहले तो आई.पी.एल.लीग के दस मैचों में नहीं खेलने का प्रतिबंध लगा, इससे जो आर्थिक नुकसान हुआ, उसके बारे में यह कहा गया कि उनके द्वारा श्रीसंथ को मारा गया तमाचा तीन करोड रुपये का नुकसान दे गया,बदनामी हुयी सो अलग. अब बी.सी.सी.आई. ने पाँच एकदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय मैच ना खेलने की पाबंदी लगायी.साथ ही साथ यह भी चेतावनी दी गयी अगर भविष्य में अगर इस तरह का कोई मामला आया तो आजीवन प्रतिबध लगा दिया जायेगा.
ऑस्ट्रेलिया दौरे के बाद हरभजन सिंह को भारतीय मीडिया ने हाथोंहाथ लिया और इसी दौरान एक चैनल पर इंटरव्यू के दौरान फिर ऑस्ट्रेलियाई खिलाडियों पर भडास निकाली,तब क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया द्वारा बी.सी.सी.आई. को इस बारे में कदम उठाने के लिये कहा ,तो एक बार फिर से हरभजन को मीडिया में कुछ ना बोलने की सलाह देकर छोड दिया गया.लेकिन इस बार मामला किसी दो देशों के बीच ना होकर बी.सी.सी. आई. के सबसे बडे खेल तमाशे आई.पी.एल. लीग के दौरान सामने आया,इसलिये सर्वेसर्वा के रूप में बोर्ड को ही फैसला लेना था.क्या होता जब यह थप्पड भारतीय खिलाडी के बजाए किसी विदेशी खिलाडी को लगा होता? ऐसे में बोर्ड का क्या रूख रहता देखने वाला होता. वैसे शेन वार्न का गांगुली के खिलाफ बोलना ज्यादा बडा मसला नहीं बना.
नस्लवाद के नायक के रूप में उभरे हरभजन पर आनन-फानन में भारतीय डाक विभाग ने डाक टिकट भी जारी करने की घोषणा कर दी. क्या इतना आसान हैं भारतीय डाक टिकट पर आ जाना. डाक टिकट किसी देश की सभ्यता संस्कृति का परिचायक होती हैं.इन पर छपने वाले व्यक्तित्व अपने क्षेत्र में बडी सफलता हासिल किय होते हैं. ये उस देश के प्रतिनिधि के रूप में देखे जाते हैं. इतनी जल्दी ही हरभजन नायक से खलनायक हो जायेंगे,किसी ने सोचा भी नही था.लेकिन डाक विभाग मीडिया द्वारा बनाये गये नये ऑयकनों के पीछे भागने के बजाए अपने सोच समझ से निर्णय ले तो ज्यादा अच्छा होगा.
इसी तरह अमेरिका की प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन ने भी आनन फानन में पटना के तत्कालीन जिलाधिकारी गौतम गोस्वामी को एशियन हीरो घोषित तो किया था, लेकिन जैसे ही बाढ राहत घोटाले में नाम आया,तो उसके संवाददाता को अपने इस निर्णय पर जवाब देते नहीं सूझ रहा था. आपका नायक जब खलनायक निकल जाता हैं तो सबसे ज्यादा दुख आप ही को होता हैं. इसलिये कोई भी निर्णय लेने से पहले उस पर सोचा जाता हैं.खली की भी भारत लौटने के बाद हरभजन से मिलने की बडी इच्छा थी,लेकिन "स्लैपगेट" के बाद खली को भी हरभजन से मिलना सही नही लगा.
अब हरभजन का यह बयान आना कि उसके जिंदगी के दो मनहूस दिनों में एक थप्पड वाला दिन था,तो अब यह बात समझ में आ रही हैं कि कितनी बडी गलती हो गयी. इतनी भी समझ आने के बाद भविष्य में अपने कंडक्ट को सही रखे तो ज्यादा अच्छा होगा.

शनिवार, 10 मई 2008

अर्जुन के तीर

मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने जब से राहुल गाँधी में प्रधानमंत्री बनने की योग्यता देखी,तब से ही "चापलूसी और वफादारी" की डिबेट शुरू हो गयी.इसके बाद काँग्रेस के कुछ और नेताओं ने राहुल को प्रधानमंत्री के रूप में देखने को उचित ठहराया.इस बीच प्रवक्ताओं ने भी अपना काम भली भाँति किया,अर्जुन सिंह जैसे कद्दावर नेता के विजन को सिक्फैंसी की संज्ञा दे दी.किसी सिक मानसिकता वाले ने ऐसा बयान दे दिया,नहीं तो सब कुछ तो योजना अनुरूप चल रहा था.राहुल गाँधी ने भी अपने को युवराज कहने को प्रजातांत्रिक मूल्यों के खिलाफ बतलाया.मीडिया हैं कि मानता ही नहीं,गाहे बगाहे जो आदत पड गयी हैं,वह सामने प्रकट हो ही जाता हैं.कुल मिलाकर पिछले कुछ महीनों की काँग्रेसी खींचतान को देखे तो पाते हैं कि इतिहास में जिस तरह एक वंश में उत्तराधिकारी के नाबालिग होने या अन्य किसी कारणों से केयरटेकर की व्यवस्था कर ली जाती थी,उसी प्रकार की परंपरा को निर्वाह करने के लिये सभी काँग्रेसी दिग्गज उतावले नजर आते हैं.इसी तरह कल फिर से अर्जुन सिंह का यह बयान आना कि पार्टी में अब वफादारी के मूल्यांकन का दायरा काफी सीमित हो गया हैं.यानि कि अब पार्टी में वफादारों की बात सुनी नहीं जा रही हैं और पार्टी चापलूसों से ज्यादा भर गयी हैं,अब उनकी ही ज्यादा चलती हैं.काँग्रेस ने भी उनकी इस टिप्पणी से असहमति जतायी कि निर्णय प्रक्रिया पर सवाल उठाया हैं।
ज्यों ज्यों आम चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं , वफादार काँग्रेसी नेताओं की छटपटाहट बढती जा रही हैं कि किस तरीके से अपनी वफादारी ज्यादा से ज्यादा दिखाये जाये.चापलूसों का अपना दर्द हैं. सत्ता में उन्हें भी तो अपनी भागीदारी चाहिये.आम जनता की बात करने वाली पार्टी किस तरह कुछ खास जनता या परिवार तक सीमित हैं यह बात तो हर कोई जानता हैं.चापलूस भी भली-भांति जानते हैं.तो क्यूँ ना फायदा उठाया जायें. आम जनता का हाथ बस हाथ के साथ में होना चाहिये.अर्जुन के तीर अभी निशाने पर नहीं लग रहे हैं,तो तिलमिलाना जरूरी हैं.पहले तो तीर निशाने पर लगते थे तब तो पार्टी में प्रजातंत्र भी था और वफादारों का सही मूल्यांकन भी होता था.लेकिन अब पार्टी की कार्यशैली भी अच्छी नहीं लग रही हैं. अब तो उन्हें समझ लेना चाहिये कि पार्टी जब युवा नेतृत्व चाह रही हैं,तो टीम भी युवा ही होगी.

शुक्रवार, 9 मई 2008

जरा सोचिए... क्यूँ जरूरत पडी फिर से सोचने की

हकीकत जैसी, खबर वैसी का राग को छोडते हुये अब जी न्यूज ने सोचने के लिये मजबूर कर दिया,इसको लेकर अब एक नये पंचलाइन "जरा सोचिए" के साथ अपने समाचार चैनल को फिर से नये कलेवर,नये तेवर के साथ प्रस्तुत करने का काम कल रात नौ छप्पन से शुरू हुआ. सूत्रधार के रूप में हिन्दी टी.वी. पत्रकारिता के आज के छात्रों के सबसे बडे ऑयकन पुण्य प्रसून वाजपेयी अवतरित हुये.कार्यक्रम में कन्नूर की घटना को लेते हुये "वोट का अग्निपथ" नामक खबर को बडी खबर बनाया गया.
बात हो रही थी समाचारों की. समाचार चैनलों पर आज के दिन समाचार नहीं दिखाया जा रहा हैं,ऐसी स्थिति में एकबार फिर से जी न्यूज ने समाचार को इस तरह से दिखाने का फैसला किया हैं ,जो कि आम जनता को सोचने पर मजबूर कर देगी.ऐसी उदघोषणा के साथ जी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा ने अपने समाचार चैनल को नये कलेवर में पेश किया. कम से कम किसी खबरिया चैनल का मालिक यह तो दर्शकों को आकर कहता हैं कि आज समाचार नहीं दिखाया जा रहा हैं. इससे पहले टाइम्स नाउ के एक कार्यक्रम में भी कहा था.
हिन्दी खबरिया चैनलों को फिर से खबर तो दिखाना शुरू करना ही हैं,कब तक मनोरंजन करवाते रहेंगे.इस सिलसिले में दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह बयान देना कि मीडिया को देश को एक नयी सोच देने में मदद करनी चाहिये ,काफी महत्त्वपूर्ण हैं. आज मीडिया के पास खबरें हैं,ऐसे पत्रकार भी हैं जो कि ऐसी खबरे भी दिखा सकते हैं जो कि आम जनता को सोचने पर मजबूर भी कर सकते हैं,लेकिन रेवेन्यू खोने का डर इतना समाया रहता हैं कि खबरों के साथ न्याय करना भूल गये हैं.
अँग्रेजी चैनलों को तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा का सामना करना पडता हैं,इसलिये वे खली और बजरंगबली पर अपने प्राइम टाइम को बर्बाद नही कर सकते हैं. हिन्दी खबरिया चैनलों को भी मन्नु और रंजन के बाप के पीछे नहीं पडकर ठोस खबरों के पीछे पडना चाहिये.कुछ ऐसा विश्लेषण करना चाहिये कि लोगों में एक नयी सोच विकसित हो सके.
जी ने पहल की हैं, देखिये कब तक बाकी चैनल ऐसा करते हैं.वैसे बडी खबर में कन्नूर की घटना पर जितनी निष्पक्षता से कार्यक्रम रखा गया,वाकई प्रयास सराहनीय था.हम भी आने वाले समय में ऐसे ही परिवर्त्तन के वाहक बने.बस इसके लिये सोचने की जरूरत हैं.