बुधवार, 28 नवंबर 2007

तस्लीमा का तिलिस्म

बांग्लादेश की विवादास्पद लेखिका तस्लीमा नसरीन इन दिनों एकबार फिर से सुर्खियों में हैं.पिछले सप्ताह नंदीग्राम में हुयी हिंसा के विरोध में जब कोलकत्ता में प्रदर्शन किये जा रहे थे,तभी एक नये मुस्लिम संगठन ने तस्लीमा की वीजा अवधि का मामला इसमें जोर दिया और इसी बीच माकपा नेता बिमान बसु का यह बयान कि अगर तस्लीमा के कारण विधि-व्यवस्था बिगडती है तो उसे देश छोड देना चाहिए.तस्लीमा का कोलकत्ता छोड जयपुर जाना,फिर वहाँ से दिल्ली आना और अब किसी अज्ञात स्थान पर जाना लगातार सुर्खियों में छाया हुआ हैं.
अपने देश को छोड पिछले कई सालों से भिन्न-भिन्न देशों में शरण लेने वाली तस्लीमा भारत को ही अपना घर मानती है.बांग्लादेश मे कट्टरपंथियों के विरोध के कारण उसका देश लौटना अब संभव नहीं हैं. अपने धर्म के खिलाफ लिखने के कारण उन्हें जगह-जगह विरोध का सामना करना पड रहा है.बुद्धिजीवियों के नजर में व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिये ,इसलिये तस्लीमा ने जो भी लिखा उस कारण उसका विरोध नहीं किया जाना चाहिये.लिकिन जो कट्टरपंथी हैं वे इस तर्क को खारिज़ करते है और इसे धर्म पर चोट पहुँचाना मानते हैं.आस्था के इस प्रश्न पर वो किसी को भी बख्शने को तैयार नहीं हैं.
इधर राजनीतिक पार्टियाँ इस मुद्दे पर भी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने से बाज नही आ रही हैं.सबसे पहले माकपा ने जबरन तस्लीमा को जयपुर भेजा ,तब राजस्थान की भाजपा सरकार ने अपने यहाँ से दिल्ली भेज दिया और अपने राजस्थान भवन में ठहराया.मीडिया ने जगह जगह पर लेखिका का पीछा किया.मुद्दा गरमाता देख केंद्र सरकार हरकत में आयी और ऐसे स्थान पर ले गयी जिसकी खबर मीडिया को ना लगे.इसी बीच गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने तस्लीमा बहन को अपने यहाँ आने का न्यौता दे दिया.
भाजपा ने इस मुद्दे पर यह जताने की कोशिश की कि वह मुस्लमानों की कितनी हिमायती हैं.केंद्र सरकार भी पीछे कहाँ रहती ,उसने भी शरणार्थी घोषित करने की जल्दबाजी दिखायी.यहाँ तस्लीमा को पनाह देना मुस्ल्मानों को खुश करना हैं या नाखुश करना,यह तो आने वाला समय ही बतायेगा,लेकिन अभी पूरी पार्टियाँ तस्लीमा के तिलिस्म में उलझी हुयी नजर आती हैं.

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

कोच तभी होगा जब वह विदेशी हो.

भारतीय क्रिकेट टीम अभी काफी अच्छे दौर से गुजर रही है. इंग्लैंड में टेस्ट श्रृंखला जीती,२०-२० का वर्ल्ड कप जीती,पाकिस्तान के खिलाफ एक-दिवसीय श्रृंखला जीती और वर्त्तमान में चल रहे टेस्ट श्रृंखला में १-० से आगे हैं.ऐसा माना जा रहा है कि टीम जो प्रदर्शन कर रही है वो बिना एक कोच के कर रही है.रॉबिन सिंह,वेंकटेश प्रसाद और लालचंद राजपूत क्या टीम की शोभा बढाने के लिये साथ में रहते हैं क्या? ये कोच की जिम्मेदारी बखूबी नही निभा रहे है क्या,जो एकाएक ऐसे विदेशी कोच का नाम सामने आ गया जिसने शुरूआत में ही कह दिया कि मैं बीसीसीआई पर यह एहसान कर रहा हूँ कोच बन कर.जी हाँ,मैं बात कर रहा हूँ दक्षिण अफ्रीका के सलामी बल्लेबाज गैरी कर्स्टन की,जो कि हाल में ही भारतीय टीम के कोच नियुक्त हुये हैं.
सबसे पहली बात कि भारतीय टीम को अचानक ही कोच की जरूरत क्यों आन पडी.इसका सीधा-सा जबाब हैं भारतीय टीम को अगले महीने ऑस्ट्रेलिया के दौरे पर जाना हैं जहाँ एक कोच की सख्त जरूरत होगी वह भी विदेशी.आनन-फानन में एक ऐसे पूर्व क्रिकेट खिलाडी को चुन लिया जिसे कोचिंग का नाम मात्र का अनुभव हैं.खिलाडी के तौर पर गैरी का भले ही अच्छा रिकॉर्ड रहा हो लेकिन किसी को कोच चुनने का यह आधार नही हो सकता हैं. और तो और आपके टीम में चार-पाँच तो ऐसे खिलाडी है जो उसके साथ खेले है और कुछ तो ऐसे है जो उनके खेलने से पहले से ही अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में खेल रहे हैं.
ग्रेग चैपल के विवादास्पद कोचिंग दौर के बाद आठ महीने तक कोई कोच (?) नहीं होने के बाद एक विदेशी को कोच नियुक्त किये जाने पर लालचंद राजपूत का गुस्सा होना यह दिखाता हैं कि किस तरह बोर्ड अभी भी विदेशी कोच होने की मानसिकता से घिरा हैं.भारत में अभी के दौर में चंद्रकांत पंडित,पारस म्हाम्ब्रे,लालचंद राजपूत,संदीप पाटिल जैसे कोच उपलब्ध हैं लेकिन बोर्ड को इनकी योग्यता पर भरोसा नहीं हैं.तो क्या भारत में कोच कभी भी अपने राष्ट्रीय टीम की कोचिंग नही कर पायेंगे.
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को यह आशंका है कि अगर डाउनअंडर जाने वाली टीम बिना विदेशी कोच के जाती है तो उस पर कोच नहीं नियुक्त किये जाने पर अँगुली उठने लगेगी.टीम ने अगर बुरा प्रदर्शन किया तो इसका ठीकरा आसानी से कोच के सिर पर फोडा जा सकता हैं.इस तरह कोच को आनन-फानन में नियुक्त कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होने में ही भलाई समझी बोर्ड ने.
भारतीय टीम को निश्चित तौर पर एक कोच की जरूरत हैं लेकिन इस तरह किसी का फेवर लेकर कोच नियुक्त करना कहाँ की समझदारी हैं.नये खिलाडियों को कोच करने की जरूरत से इंकार नहीं किया जा सकता हैं.तीस से उपर के खिलाडी भले ही कोचिंग की जरूरत नही पडे लेकिन नये खिलाडी जितनी जल्दी से भारतीय टीम में दिखायी देते है उतने जल्दी ही गायब हो जाते हैं.नये आने वाले खिलाडीयों में प्रतिभा तो काफी हैं लेकिन उसे निखारने की जरूरत हैं ताकि वह भी आया राम गया राम वाली श्रेणी में शामिल ना हो जायें.इस समय एक दक्ष कोच की जरूरत थी ना कि कामचलाऊ कोच की.

सोमवार, 26 नवंबर 2007

२६ को ही क्यों आते है भूकंप?

तारीख: २६ नवम्बर,२००७
समय : ४:४२ प्रातः
स्थान : दिल्ली व आस-पास का इलाका.

जाडे की सर्द सुबह. लोग अपने रजाई व कंबलों में सोये थे तभी अचानक धरती के हिलने के साथ लोगो का सडकों पर भागना शुरू हुआ.भूकंप के झटके महसूस किये गये.पूरी दिल्ली जग गयी.समाचार-चैनलों ने अपने दफ्तर में महसूस किये हुये झटके के फूटेज को ही दिखाना शुरू किया. ४.३ रिक्टर तीव्रता वाले भूकंप से कोई नुकसान तो नहीं हुआ,लेकिन तारीख की बात करे तो अभी हाल में आये हुये भूकंप और सुनामी जैसी विपदाओं की बात करे तों २६ नवंबर २००४ को भारत के दक्षिणी समुद्री तट पर सुनामी का कहर आया हो या २६ जनवरी २००१ को गुजरात के कच्छ इलाके में महसूस किये हुये झटके हो.
भारत में हाल में जितनी भी प्राकृतिक आपदाऍ जो हमारी स्मृति में ताजा हैं वो तो कम से कम २६ तारीख को ही आयी हैं.इसके संदर्भ में ऐसा हो सकता हैं कि २६ के दोनों अंकों को जोडने से २+६=८ बनते है और ये ८ संख्या की बात करे तो पाते हैं कि यह अँग्रेजी में ८ दो शून्यों को जडने से बना हैं जो पृथ्वी के ऊपर एक और पृथ्वी का परिचायक हैं. इन दोनों में अस्थिरता आने पर भूकंप आता हैं,चूँकि २६ को ही यह संतुलन गडबडाता हैं,अतः इसी तारीख को भूकंप आने की ज्यादा संभावना रहती हैं.
अंक-ज्योतिषियों की भी इससे मिलती जुलती राय हो सकती हैं,लेकिन आने वाले २६ तारीखों को तो हम कम से कम सावधान रह ही सकते है.

शनिवार, 24 नवंबर 2007

क्या सुरक्षित है आम भारतीय?

उत्तर प्रदेश में हुये एक के बाद एक बम धमाकों से हमारे सामने यह प्रश्न खडा हो गया हैं कि क्या देश में ऐसा कोई भी इलाका है जहाँ हम भारतीय सुरक्षित हैं. महानगरों के बाद अब छोटे-छोटे शहरों को निशाना बनाया जा रहा हैं.इस बार हुये बम धमाकों की जिम्मेदारी एक ऐसे संगठन ने ली हैं,जिसके विषय में पहले कभी नही सुना गया.इस संगठन की हिम्मत देखिये एक टेलीविजन चैनल के कार्यालय में ई-मेल कर यह सूचना देता है कि अब से पांच मिनट बाद बम धमाके होंगे.हुआ भी ऐसा ही.सिलसिलेवार बम धमाके से पूरा उत्तर प्रदेश दहल गया.
बम धमाकों के बाद आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया.खुफिया-तंत्र का फेल होना बताया गया.क्या ऐसा करने से देश में हो रहे बम-धमाके होने बंद हो जायेंगे? क्या ऐसे ही कोई संगठन कल फिर से एक ही दिन में अस्तित्व में आकर तबाही का मंज़र पैदा करता रहेगा? क्या मुआवजे की राशि ही बाँट कर सरकार अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जायेगी?
आज फिर से उसी समाचार चैनल के दफ्तर में एक और ई-मेल भेजा जाता है और उसमें किसी खेल के कार्यक्रम की भाँति बम धमाके करने का विस्तृत कार्यक्रम भेजा जाता हैं.पाकिस्तानी टीम को लौटने की सलाह दी जाती है.कल भेजे गये ई-मेल का स्रोत तो मालूम कर लिया गया है और ई-मेल भेजने वाले को पकड भी लिया जायेगा,लेकिन सोचने वाली बात यह हैं कि आतंकवादियों की यह हिम्मत कि वे इस तरह हमारी व्यवस्था का मजाक उडाये.
खुफिया-तंत्र की विफलता के अलावा पुलिस-तंत्र की भी यह विफलता हैं.लखनऊ में धमाके के होने के बाद काफी देर से पुलिस पहुँची और उसके बाद भी स्थिति को सँभालने में विफल रही,तब जाकर वकीलों का गुस्सा भी पुलिस पर फुटा.
एक के बाद एक हो रहे बम धमाकों के बाद भी केंद्र सरकार सचेत नही हो रही हैं. आम जनता की जान की कोई कीमत नहीं नजर आ रही है.वी.आइ.पी. सुरक्षा के पीछे करोडों रूपये बर्बाद किये जा रहे है,लेकिन आम जनता को उसके हाल पर छोडा जा रहा हैं.कहीं भी भीडभाड वाले जगह पर निकलने में भी लोगों को एक अनजाना भय बना रहता हैं.क्या एक आम आदमी की जान की कोई कीमत नही हैं?
पुरा विश्व आतंकवाद की समस्या से जूझ रहा हैं.हालिया मिले ई-मेल से भी यह पता चलता है कि भारत में मुस्लमानों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं हो रहा हैं,उसी का परिणाम हैं यह बम धमाके.इस्लामी जिहाद का नाम दिया जा रहा हैं.कुछ चंद मुठ्ठी भर लोग यह क्यों नही समझते कि सिर्फ हथियार के बल पर आज के युग में अपनी सत्ता कायम नही की जा सकती है.
हर हमले के बाद उस स्थल की सुरक्षा बढा दी जाती है.कुछ दिनों बाद जन-जीवन सामान्य भी हो जाता है,लेकिन वहाँ के उन लोगों की जेहन में एक घाव छोड जाती है हमेशा के लिये,जो इस घटना में अपने को खोते हैं.सुरक्षा व खुफिया तंत्र को और मजबूत करने की जरूरत हैं ताकि इस तरह की घटनाओं को होने से रोका जा सके और आम जन भी निर्भय हो कर कहीं आ जा सके.

शुक्रवार, 23 नवंबर 2007

एड्स रोगियों में कमी अखबार की नजर में

संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एड्स रोगियों की संख्या के संबंध में जो नये ऑकडे जारी किये है,उसके अनुसार पुरे विश्व में एड्स रोगियों की संख्या में २००६ के मुकाबले २००७ में ६३ लाख की कमी आयी है.इस खबर को दो अंग्रेजी दैनिकों 'द इंडियन एक्सप्रेस' और 'द टाइम्स ऑफ इंडिया' ने अपने मुखपृष्ठ पर संक्षेप में स्थान दिया है और अंदर के पृष्ठों पर विस्तार से इस खबर को दिया है.वही 'द हिन्दू' ने भीतर के पृष्ठ पर शीर्षक और उप-शीर्षक के साथ इस खबर को प्रकाशित किया है.
'द इंडियन एक्सप्रेस' ने इसे लीड बनाते हुए शीर्षक दिया है कि भारत द्वारा प्रस्तुत किए गये संशोधित ऑकडे से विश्व के एड्स रोगियों की संख्या में कमी.२००७ में भारत ने एड्स रोगियों की संख्या जुटाने के लिये नयी प्रणाली अपनायी जिसके कारण इस बार प्रमाणिक ऑकडे सामने आये.इस नयी विधि में 'निरीक्षण ऑकडे' और जनसंख्या आधारित सर्वेक्षण दोनों शामिल हैं. इस विधि को आधार मानकर जब संयुक्त राष्ट्र और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एड्स संबंधी नये ऑकडे पेश किये तो यह संख्या चार करोड से घटकर तीन करोड तीस लाख ही रह गयी.अखबार ने छह कॉलम की खबर देते हुए ग्राफिक्स के जरिए देश के उन पाँच राज्यों की भी सूची दी है जहाँ सर्वाधिक एड्स रोगी हैं,इसमें मणिपुर,नागालैंड और आँध्र प्रदेश क्रमशः पहले,दूसरे व तीसरे स्थान पर हैं.
वही 'द हिन्दू' ने पाँच कॉलम में खबर देते हुए ऑकडों पर ज्यादा जोर दिया हैं. अफ्रीका के सहारा क्षेत्र में २००७ में सत्रह लाख नये एड्स रोगी चिह्नित किए गये है.२००७ के नये ऑकडे में भारत में एड्स रोगियों की कुल संख्या पच्चीस लाख बतायी गयी है,वही विश्व स्तर पर यह संख्या तीन करोस बत्तीस लाख है.एक अनुमान के मुताबिक प्रत्येक दिन ६८०० नये लोग एड्स से ग्रसित होते हैं.पिछले दो साल मे एड्स से मरने वाले रोगियों की संख्या में कमी आयी है.
'द टाइम्स ऑफ इंडिया' ने भारत में हुये इस नयी प्रविधि के तरीकों पर जोर देते हुये २९ राज्यों में डेढ लाख लोगों के रक्त परीक्षण से इस नये ऑकडे के और अधिक सटीक होने की बात कही.संयुक्त राष्ट्र के एड्स कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक डॉक्टर पीटर प्योट की बात को छापा कि सुधार के बाद एचआईवी पीड़ितों के जो आँकड़े मिले हैं उससे इस महामारी की साफ़ तस्वीर हमारे सामने आई है. चार कॉलम में छपी खबर में भारत मे एड्स उन्मूलन की दिशा में कार्यरत नाको संगठन की निदेशक के.सुजाता राव के कथन और भारत में संयुक्त राष्ट्र के एड्स कार्यक्रम के प्रमुख डेनिस ब्रोउन के कथनों को प्रमुखता दी.

गुरुवार, 22 नवंबर 2007

हवा में उडते बिमान

पश्चिम बंगाल में तेजी से बदलते हुए घटनाक्रम के बीच में माकपा नेता विमान बोस के बयान काफी उन्मुक्त रूप से आ रहे हैं.जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पहली बार अपनी चुप्पी तोडते हुए कहा था कि यह घटना काफी दुखद है और राज्य सरकार की यह जिम्मेदारी बनती हैं कि वहाँ सभी को बिना किसी मतभेद के राहत पहुँचाये. प्रधानमंत्री की इस प्रतिक्रिया पर टिप्पणी करते हुए माकपा नेता बिमान बोस ने कहा कि वे प्रधानमंत्री हैं और प्रधानमंत्री का जो काम है वो करे.
२१ नवंबर को कोलकता में हुई हिंसा के दौरान नंदीग्राम के मुद्दे के अलावा तस्लीमा नसरीन की वीजा अवधि बढाये जाने का मुद्दा भी सामने आया .इस पर भी उनका बयान आया कि तस्लीमा को भारत छोडकर चले जाना चाहिये.
इससे पहले भी राज्य में २००४ के विधानसभा चुनाव के दौरान गडबडी होने की स्थिति में चुनाव रद्द करने की बात कही थी.२००५ में न्यायपालिका के खिलाफ टिप्पणी करने के कारण तीन दिन की जेल और दस हजार रूपये के जुर्माने की भी सजा भी सुनायी गयी थी.
हाल में दिये हुए बयानों की बात करे तो अपने को क्या समझ लिया हैं कि प्रधानमंत्री को यह नसीहत दें कि उन्हें सिर्फ अपने काम से मतलब होना चाहिये.क्या पश्चिम बंगाल देश के बाहर पडता है,जिसके वो प्रधानमंत्री नही हैं.अपने को बंगाल राज्य का सर्वेसर्वा समझने वाली पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के मुंह से यह बयान शोभाजनक नहीं लगता हैं.राज्य के किसी हिस्से में अगर अव्यवस्था हैं तो राज्य सरकार का यह फर्ज बनता है कि वहाँ स्थिति को नियंत्रण में लाए.न कि शासन करने वाली पार्टी के एक नेता इस तरह की अनर्गल बाते करे.
तस्लीमा नसरीन के मुद्दे पर तो अगले दिन अपने बयान को वापस लिया और कहा कि वीजा को निरस्त करने या बढाने का अधिकार केंद्र सरकार का हैं.इस बयान से पश्चिम बंगाल की सरकार को एक बार फिर स्पष्टीकरण देना पडा.राज्य में इस समय माकपा के विरोध में विपक्षीयों के अलावा सहयोगी दलों ने भी मोर्चा खोल रखा हैं.
माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य होने के साथ साथ वरिष्ठ नेता होने के कारण उनका यह दायित्व बनता है क़ि जो भी बयान दे सोच समझ कर दे.पार्टी को शर्मसार ना होना पडे और एक लोकतंत्रीय मर्यादा के भीतर रहकर अपने विचार व्यक्त करे अन्यथा इससे पहले भी खामियाजा भुगतना पडा है और आगे भी ऐसा कुछ हो सकता हैं.

बुधवार, 21 नवंबर 2007

अंधविश्वास फैलाता बुद्धू बक्सा

प्रेत,अन्धविश्वास,चमत्कार,ज्योतिष आदि पर दिखाये जाने वाले कार्यक्रमों का आज के युवा पीढी पर काफी खराब असर पर रहा है.समाचार चैनलों पर इन कार्यक्रमों का प्रसारण आधे घंटे से लेकर एक घंटे के बुलेटिन के रूप में होता हैं.इन कार्यक्रमों के प्रसारण के पीछे चैनल का मुख्य उद्देश्य अपने टाइम-स्लॉट को भरना होता है और साथ ही साथ ज्यादा से ज्यादा टी.आर.पी. भी हासिल करना होता है.धर्म के नाम पर लोगों को तरह तरह के समाचार दिखा कर जैसे-हनुमानजी के आँख से आँसू निकलना,मूर्तियों द्वारा दूध पीना आम जनता को गुमराह करने का काम किया जा रहा हैं.समाचारों में कमी तो नही आ गयी है,जो इस तरीके के समाचार बनाये जा रहे हैं.
भूत-प्रेत पर जी न्यूज द्वारा शुरू किये गये कार्यक्रम 'काल कपाल महाकाल' को खासी लोकप्रियता मिलने का दावा चैनल ने किया.इसका प्रसारण रात में किया जाता था,चैनल द्वारा इस कार्यक्रम के जरिए पाखंड व अवैज्ञानिक बातों को फैलाया जा रहा था.अघोरी,तंत्र-मंत्र की बातों को सही ठहराया जा रहा था.आज के दिन टेलीविजन सूचना का एक सशक्त माध्यम बन कर उभरा हैं,निरक्षर लोगों पर इसका ज्यादा गहरा असर पडता हैं.ऐसे में साक्षरों के साथ साथ निरक्षर जनता पर भी ऐसे कार्यक्रमों का सीधा असर पडता हैं.वे भी इन बातों में विश्वास करने लगते हैं.बच्चों और किशोरों के मन-मस्तिष्क पर ऐसे कार्यक्रमों का बुरा प्रभाव पडता है.
ज्योतिष कार्यक्रमों के दौरान जनता से अपने भविष्य के बारे में जानने के लिये फोन करने को कहा जाता है.दर्शक भी ऐसे कार्यक्रमों में बैठे ज्योतिष से सवाल पूछने में कोई हिचक नहीं दिखाते हैं.इनकी बातों पर यकीन कर तरह तरह के टोटके,अँगूठी,रत्न आदि धारण करने लगते है.एक अंधविश्वास का माहौल बनने लगता है.इन ज्योतिषों की बात पर विश्वास कर युवा अपने ध्येय से भटक जाते हैं.उनके लिये ज्योतिषों की कही बात लकीर हो जाती हैं,जिसे मानना वे जरूरी समझने लगते हैं.
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नाटक हैं कि खत्म ही नहीं होता.

कर्नाटक में सात दिन पुरानी बी.एस.येदुरप्पा नेतृत्व वाली भा.ज.पा. सरकार सदन में बहुमत साबित करने से पहले ही गिर गयी. पिछले दो महीने से चले आ रहे नाटक का पटाक्षेप होने के बजाय यह और भी खींचता चला जा रहा हैं. राष्ट्रपति शासन हटाने के लिये भाजपा और जद(एस) दोनों पार्टी एकदम अड गयी थी,लेकिन सरकार जहाँ बनाने की बात आयी,दोनों के आपसी मतभेद एक बार फिर उभर के सामने आ गये.

भारतीय जनता पार्टी का दक्षिण राज्य में कमल खिलाने का सपना अभी अधूरा ही रह गया.पार्टी ने इस बार भी सत्ता-हस्तांतरण के मामले में एक बार फिर धोखा खाया.अपनी पिछली भूलों से सबक नही लेने का खामियाजा इस बार भी भुगतना पडा.१९९७ में मायावती ने उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को सता में नही आने दिया. हर बार पार्टी अपने गठबंधन सहयोगी को पहले सरकार बनाने का मौका देती हैं ,जिस कारण से सरकार बनाने की जब इन की बारी आती हैं,तो धर्मनिरपेक्षता का हवाला देकर दूसरी पार्टी किनारा कर लेती हैं.

जनता दल (सेक्युलर) के प्रमुख नेता एच. डी. देवेगौडा ने भाजपा की नयी सरकार के सामने १२ सूत्री माँगों पर पहले हस्ताक्षर करने की स्थिति में ही समर्थन देने की बात कही,जिसे की भाजपा ने सिरे से नकार दिया.इससे पहले भी अक्तूबर महीने में जद(एस) ने भाजपा को सरकार बनाने नही दिया था. इस तरह दो-दो बार धोखा दिया गया.अब काँग्रेस के समर्थन पर सरकार बनाने का सोच रही हैं.

समर्थन वापस लेने के पीछे कारणों में जद(एस) के द्वारा मुख्य मंत्रालय मांगा जाना बताया जा रहा हैं.साथ ही देवेगौडा परिवार में आपसी कलह भी इसका कारण बताया जा रहा हैं.देवेगौडा के दूसरे बेटे रेवन्ना को उप्-मुख्यमंत्री बनाया जा रहा था जबकि जद(एस) के विधायक एच.डी.कुमारास्वामी को उप-मुख्यमंत्री बनाना चाह रहे थें.

प्रजातंत्र में गठबंधन के इस युग में पार्टियों को भी भिन्न-भिन्न स्थिति से गुजरना पड रहा हैं,ऐसे में नए समीकरणों का सामने आना लोकतंत्र में हमारी आस्था को और गहरा करती हैं,लेकिन हमारे द्वारा चुनकर भेजे गये प्रतिनिधियों और उनकी सत्ता-लोलुपता को भी सामने रखती हैं. राजनीति अब समाज सेवा नही रह गयी हैं,ज्यादा से ज्यादा स्व-सेवा हो गयी हैं.गठबंधन के दौरान उनकी स्वार्थसिद्धी मुखर रूप से जनता के सामने उभर कर आती है,जनता भी ऐसे समय में सहानुभूति के लहर में धोखा खायी पार्टी के साथ हो जाती हैं,जो कि नही होना चाहिये.जनता को वैसी पार्टी को चुनना चाहिये,जो कि राज्य के सर्वांगीण विकास के लिये सोचे,न कि अपने विकास की.

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

किसानों की आत्महत्या ऑकडों में

किसानों की आत्महत्या के सिलसिले में नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो की रिपोर्ट पर हम नज़र डाले तो हम पाते हैं कि १९९७ से लेकर २००५ के बीच डेढ लाख किसानों ने आत्महत्या की,जो कि अपन आप में चौंकाने वाला तथ्य है.१९९१ की जनगणना से २००१ की जनगणना में किसानों की संख्या में गिरावट दर्ज़ की गयी है इसका मुख्य कारण बडे पैमाने पर किसानों द्वारा खेती छोड दूसरा पेशा अपनाना बताया जा रहा हैं.
१९९७ से लेकर २००५ के बीच सामान्य आत्महत्या की दर जहाँ १०.७% रही हैं वही किसानों की आत्महत्या की दर १२.६% हैं,जो कि सामान्य कारणों से ज्यादा हैं. इसी दौरान किसानों की आत्महत्या में २७ फीसदी की बढोत्तरी हुई है,वही सामान्य आत्महत्या में १८% की बढोत्तरी दर्ज की गयी है.रिपोर्ट में २००१ वर्ष को टर्निंग प्वाइंट माना हैं,जहाँ से किसानों की आत्मह्त्या में हर साल बढोत्तरी ही दर्ज की जा रही हैं.
भारत के चार राज्यों - आँध्र प्रदेश,कर्नाटक,महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में पूरे देश में होने वाली आत्महत्या का दो-तिहाई आत्महत्याऍ होती हैं. मध्य प्रदेश में हो रही आत्महत्याओं में २००६-०७ के दौरान किसानों की आत्महत्या में ११% की बढोत्तरी हुई है. यह राज्य अभी हाल में हो रही आत्महत्याओं के कारण इन चार राज्यों की सूची में शामिल हुआ हैं.
किसानों की आत्महत्या पर चेन्नै के प्रोफेसर के. नागराज की रिपोर्ट के अनुसार जिन राज्यों में किसानों ने जहाँ पारंपरिक फसल उगाने की बजाय जहाँ नकदी फसल उगाना शुरू किया ,वही आत्महत्याओं की संख्या में बढोत्तरी देखी गयी. एक हद तक यह बात सही हो सकती है,लेकिन नकदी फसल उगाने के पीछे ज्यादा धन ही कमाना होता हैं.नकदी फसल के उत्पादन में काफी खर्च होने के कारण किसान बैंक और बाजार से कर्ज तो ले लेते है लेकिन चुकाने की स्थिति में ना होने के कारण आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं.उनके पास खाने के लिये अनाज भी नही होता है.
नकदी फसल के उत्पादन के बाद भी फसल की सही कीमत नहीं मिल पाती हैं.अगर बी.टी. कॉटन की बात करे तो अमेरिका इस पर जितनी सब्सिडी देता है,उतनी कीमत पर अपने किसान अगर बेचे तो उनका उत्पादन-मूल्य भी नही निकल पाता हैं. ऐसे प्रतिस्पर्धी बाजार में ऐसी समस्या आती ही रह्ती हैं.
किसानों के द्वारा ज्यादा से ज्यादा कमाने की चाह उन्हें कही का नही छोडती हैं.नकदी फसल का उत्पादन मूल्य बढता ही जा रहा हैं जिस कारण इससे होने वाले फायदे में भी कमी आती जा रही हैं.फिर कभी कभी फसल भी खराब होने की स्थिति में उनके सामने कर्ज चुकाने की समस्या आ जाती हैं,ऐसे में उन्हें आत्महत्या करने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नज़र नही आता हैं.सरकार भी समय समय पर कर्ज देती है,लेकिन एक बार से ज्यादा बार लेने के बाद भी अगर हर बार डीफॉल्टर होने की स्थिति में सरकार से भी मदद मिलना बंद हो जाता हैं.
देश में हर ३२ मिनट पर एक किसान आत्महत्या करता हैं,ऐसी स्थिति में सरकार द्वारा सिर्फ राहत देने से काम नहीं चलेगा. सरकार को ऐसी नीति लानी होगी जिससे कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ कहे जाने वाले कृषि क्षेत्र से किसानों का पलायन कम हो और ज्यादा से ज्यादा कृषि-उत्पाद हो ताकि हमें दूसरे देश पर कम से कम अनाजों के लिये निर्भर ना होना पडे.

शनिवार, 17 नवंबर 2007

कालिंदी इतनी काली क्यों?

छठ पर्व के अवसर पर आज सुबह यमुना नदी के किनारे भगवान सूर्य को अर्घ्य देने का मौका मिला. नदी किनारे श्रधालुछओं की भीड देखकर लगा ही नही कि यह पर्व बिहार के बाहर भी इतने उल्लास व भक्ति के साथ मनाया जाता है.सभी सुबह में आदित्य की उगने की प्रतीक्षा कर रहे थे ,ज्योंहि पूर्व के आसमान पर हल्की लालिमा के बीच भगवान भास्कर उदित हुए,वैसे ही यमुना में उतर कर अर्घ्य दिया. यमुना का पानी देख एकबार तो पानी में उतरने का मन नही हुआ.
यमुना नदी को प्रदूषणमुक्त करने के लिये सरकार ने १९९३ से यमुना एक्शन प्लान चलाया था,लेकिन अभी तक १८०० करोड रूपये खर्च करने के बाद भी स्थिति ज्यों की त्यों है.सरकार को इस दिशा में विदेशी सहायता भी मिली,लेकिन ठीक रूप से कार्यान्वयन नही होने के कारण इतने पैसे यमुना के नाम पर अधिकारियों और अन्य लोगों की जेबों में चले गये.
लंदन में भी टेम्स नदी की स्थिति यमुना नदी के ही माफिक हो गयी थी,लेकिन एक उचित कार्य योजना के तहत उसे पूरी तरिके से प्रदूषण मुक्त कर लिया गया. २०१० में दिल्ली में होने वाले कॉमनवेल्थ खेलों को भी देखते हुए इसे जल्द से जल्द प्रदूषण मुक्त करने के उपाय करने चाहिये.

शुक्रवार, 16 नवंबर 2007

क्या आत्महत्या ही करना है उपाय?

किसानों की आत्महत्या के बाद आंध्र प्रदेश से वैसे श्रमिकों की आत्महत्या की खबर आ रही है जो कर्ज लेकर कमाने के लिये खाडी देशों में चले जाते हैं,लेकिन लौटने पर कर्ज ना चुकाने कि स्थिति में आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं.इस साल ऐसे पचास मामले दर्ज किये गये हैं. आंध्र प्रदेश सरकार पहले से ही किसानों की आत्महत्या की समस्या से परेशान है,अब यह एक नयी समस्या उनके सामने आ रही हैं.
खाडी देशों की चमक-दमक देखकर वहाँ जाकर काम करने वालों की संख्या पिछले कुछ सालों में काफी तेज गति से बढी हैं.२००५ में भारत से विदेशों में साढे पाँच लाख श्रमिक गये थे वहीं २००६ में यह संख्या बढकर सात लाख हो गयी. प्रत्येक साल एक लाख श्रमिक वापस लौटते हैं.वापस लौटने के बाद जब इनके सामने कर्ज चुकाने की समस्या आती है तो ऐसी स्थिति में ये महजनों से बचते बचते एक शहर से दूसरे शहर भागते फिरते नज़र आते हैं.
बेरोजगारी के कारण और ज्यादा से ज्यादा कमाने की ललक में कामगार विदेश में काम के लिये भेजने वाले दलालों के झाँसे में आ जाते है और विजटर वीजा पर ही कमाने के लिये चले जाते हैं. दलाल ही इन सबका इंतजाम करते है ,वे इन श्रमिकों को अकूत पैसा कमाने का सब्ज-बाग दिखाते है और अपनी दलाली का पैसा बनाते हैं.लेकिन सब किस्मत के धनी नही होते है,ज्यादतर को छ्ह महीने से एक साल के भीतर ही लौटना पडता है.ऐसे में वे अपने लिये कुछ पैसा बना नही पाते है और लौटन पर तरह तरह की समस्या का सामना करना पडता है.
सरकार भी इसके लिये कम दोषी नही है.पहले तो वह अपने देश में ही रोजगार पैदा नही कर पा रही है और दूसरा अवैधानिक तरीके से होने वाले अप्रवास पर नजर नही रखती है. ऐसे में इन लौटने वाले कामगारों के लिये सहायता का प्रावधान करने का सोचती है.पहले से ही अगर रोजगार के अवसर पैदा कर दे तो इस तरह की समस्या का सामना नही करना पडेगा.

तेंदुलकर नही ,(१००-टेन)ढुलकर

ग्वालियर का रूप सिंह स्टेडियम उस वक्त शान्त हो गया जब सभी दर्शक सैकडो के बादशाह सचिन तेंदुलकर के ४२वें एक दिवसीय शतक का इंतजार कर रहे थे, जब वो ऑफ-स्टंप के बाहर की गेंद को बिना पैर हिलाए खेल बैठे और अपना विकेट गंवा बैठे. जी हाँ ,तेंदुलकर के ४२वें शतक का इस साल दर्शकों ने छठी बार इन्तज़ार किया,लेकिन यह साल बिना शतक के बीता.
अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में अठारह साल पुरे होने पर अब तक तेंदुलकर ने टेस्ट में ३७ शतक और एक-दिवसीय मैचों में ४१ शतक बना रख्र हैं. अगर तेन्दुलकर के नब्बे से निन्यानवे रनों के बीच आउट होने की बात करे तो अब तक वे टेस्ट में सात बार और एक-दिवसीय मैचों में सोलह बार 'नर्वस-नाइनटीज' के शिकार हुए है.अगर ये इन शतकों को नही चुके होते, तो अभी इनके नाम "सैकडों के सैकडें" का अनूठा रिकार्ड होता.
क्रिकेट की दुनिया में तेंदुलकर रिकार्डों के लिये जाने जायेंगे. दर्शकों को पहले शिकायत रह्ती थी कि तेंदुलकर सिर्फ अपने शतकों के लिए खेलत हैं,आज वही दर्शक उनके बल्ले से एक शतक का इंतजार कर रहे है.तेंदुलकर का नब्बे व निन्यानवें के बीच में आउट होना भी एक रिकार्ड ही तो बन रहा हैं.कम से कम इस रिकार्ड को तो तोड्ने की कोशिश कोइ भी खिलाडी नही करना चाहेगा.
मैच के दौरान जब तेंदुलकर नब्बे रन का ऑकडा छुए,तब से दर्शक-दीर्घा में एक प्ले-कार्ड पर ९९+१ रन लिखा दिखाया जा रहा था,लेकिन तेंदुलकर उस दर्शक की इच्छा इस साल पुरा नही कर सके.सेहवाग भी इसी दौरान आउट हुए,लगा कि तेंदुलकर पर मँडराता हुआ ग्रह टूट गया. लेकिन ड्रिन्क-ब्रेक ने सारा मजा किडकिडा कर दिया.मैदान पर लगे बडे टी.वी. स्क्रीन पर बडे अक्षर में "तेंदुलकर ९७ नॉट आउट" नजर आ रहा था,लेकिन क्य मालूम था कि यह उनका इस मैच का फाइनल स्कोर होगा.अगला वन-डे सचिन शायद ही खेले,इस साल तो कुल छ्ह बार वे शतक से चुके.
मानो या ना मानो, अब तेंदुलकर के वे आलोचक कहाँ चले गये जो उन्हे सिर्फ अपने शतक के लिये ही खेलने वाला खिलाडी मानते थे.मैच के प्रेजेंटेशन के दौरान वे भले मैच को जितना अहम मान रहे थे लेकिन शतक ना बना पाने का मलाल उनके चेहरे पर साफ साफ झलक रह था.मैदान का भी खामोश हो जान इस बात का गवाह है कि उनके इस दुख में हम भारतीय भी शामिल थे.
अगले साल वह अपने शतकों मे १९९८ की तरह इजाफा करेंगे,जब उन्होंने एक साल में ९ शतक लगाये थे और अपने एक-दिवसीय शतको का अर्ध-शतक बनायेंगे.

गुरुवार, 15 नवंबर 2007

स्वास्तिक या क्रॉस : दोनो तो ही हैं धर्म के निशान

भोपाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की डॉक्टरी पेशे की इकाई आरोग्य भारती ने जब से अपने सदस्यों को 'रेड क्रॉस' की जगह 'स्वास्तिक' का निशान उपयोग करने को कहा है,तब से यह मुद्दा मीडिया में एक बहस का मुद्दा बन गया है.सबसे पहले 'रेड क्रॉस'ने अपने निशान के उपयोग पर पाबंदी लगा दी थी,तब से इंडियन मेडिकल एशोसिएशन ने एक नये निशान को स्वीकृत किया था,जो कि आम जन को समझ में नही आ सका,इसलिये उसका कम से कम उपयोग हो रहा हैं,ऐसे मे एक ऐसे निशान की खोज की जा रही थी जो की पिछले निशान से मिलता-जुलता हो और जिसे लोग आसानी से पहचान लें.
भोपाल में इस निशान का उपयोग वहाँ के डॉक्टरों ने करना शुरू कर दिया हैं. इस रविवार से नागपुर में भी एक बडे पैमाने पर नेशनल मेडिकल ऑरगनाइजेशन,विश्व आयुर्वेद परिषद, आयुर्वेद व्यास पीठ और होम्यो समाज नाम की संस्थायें भी अपने डॉक्टरों के बीच 'स्वास्तिक' के स्टिकर बाँट रही हैं.
इसका समर्थन करने वालों का तर्क यह है कि स्वस्तिक भारतीय संस्कृति से जुडा है और हम रेड क्रॉस के खिलाफ नही है. साथ ही यह भी तर्क दे रहे है कि हमने हिटलर के नाजी पार्टी के निशान से यह नही मिले ,इसलिये इसमे चार बिंदुओं का भी उपयोग कर रहे है. वैसे भी वैज्ञानिक तौर पर स्वास्तिक के निशान से सर्वाधिक ऊर्जा निकलती है.
इस नये निशान को लेकर सभी सहमत है ऐसा भी नही है. सबसे पहले इसे हिन्दू धर्म का निशान मानकर खारिज कर रहे है.रेड क्रॉस, जो इतने दिनों से डॉक्टरी पेशे का निशान बनी हुई है,के हटने से डॉक्टर अपनी पहचान खो देंगे-ऐसे तर्क दे रहे है.भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसे ही किसी निशान को एक ऐसे पेशे से जोर दिया जाये जिससे मानवता जुडी है.
सबसे पहली बात तो यह कि भारत में विभिन्न धर्मों के मानने वाले लोग रहते है जिस कारण इसे लागू करना इतना आसान नही होगा. अगर कुछ लोग अपनी सुविधा के लिये किसी निशान को उपयोग में ला रहे है तो इस पर किसी को आपत्ति नही होनी चाहिए. "रेड क्रॉस संस्था" ने जब अपने निशान के उपयोग के सर्वत्र उपयोग के विरोध में कोर्ट में भी गयी है,तो ऐसी स्थिति में इंडियन मेडिकल एसोशिएशन को चाहिये की वह एक ऐसा निशान लाये जो पूरे भारत में मान्य हो और आसानी से भी पहचान में आये.जहाँ तक इस रेड क्रॉस के उपयोग का सवाल है मुस्लिम राष्ट्रों में इसका इस्तेमाल नहीं किया जाता हैं, वे अर्द्धचन्द्र निशान का उपयोग करते हैं.
इस मुद्दे को इतना बडा मुद्दा नही बनाना चाहिये,जो निशान ज्यादा से ज्यादा लोगों के समझ में आता हैं,उसे उपयोग में लाना चाहिये.

बुधवार, 14 नवंबर 2007

हल्की गुलाबी गेंद

रेड चेरी, व्हाइट और अब ब्राइट पिंक. जी हाँ,अब क्रिकेट की गेंद भी समय के साथ अपना रंग बदल रही हैं. अब आप कुछ ही सालों में सफेद गेंद की जगह क्रिकेट में ब्राइट पिंक यानि हल्की गुलाबी गेंद देखने को मिलेगी. अभी इंग्लैंड में एम.सी.सी. इस नयी गेंद के रंग के ज्यादा देर तक टिकने का परीक्षण कर रही हैं. अभी वर्त्तमान में प्रचलित सफेद गेंद का रंग काफी जल्दी उतर जाता है. साथ ही यह मटमैली भी ज्यादा जल्दी हो जाती है.
प्रयोग के तौर पर २००९ में होने वाले ट्वेंटी-२० विश्व कप में इसका पहली बार प्रयोग किया जायेगा.गुलाबी गेंद का रंग काफी देर के बाद जाता हैं.इसलिये इस गेंद पर शुरूआती दौर के परीक्षण एम.सी.सी.,लंदन के द्वारा इमपीरियल कॉलेज में किये जा रहे है.
एम. सी. सी. के जॉन स्टीफेंसन ने इसे पहली बार मीडिया के सामने रखा.लेकिन यह गेंद टेस्ट मैचों में प्रयोग नही लायी जायेगी. टेस्ट मैच में रेड चेरी गेंद ही प्रयोग में लायी जायेगी.जहाँ तक वन-डे मैचों का सवाल है ,अगर यह गेंद ट्वेंटी-२० में अपना रंग जमाने में कामयाब रहेगी तो ही इसे वन-डे में उपयोग में लाया जायेगा.
सफेद गेंद के चलते वन-डे में अभी हाल में ३४ ओवर के बाद बदलने का नियम लाया गया है,इसमे हो सके तो भविष्य में बदलाव आये, तब तक गुलाबी गेंद के आने का इंतजार कीजिए

राष्ट्रीय पशु की जान खतरे में

वन्य-जीवों का संरक्षण पर्यावरण के लिये निहायत ही जरूरी हैं, इसके लिये सरकार जहाँ तरह तरह के उपाय करती है वहीं हाल में महाराष्ट्र के वन्य विभाग के अधिकारी का तडोबा अभ्यारण्य के आस पास बाघों को देखते ही गोली मार देने के आदेश ने इस विलुप्त होते हुए जीव को फिर से संकट में डालने का काम किया हैं.


महाराष्ट्र में पडने वाले एक इलाके तडोबा मे बाघों की प्रजाति पायी जाती है. तडोबा से लेकर ब्रह्मपुरी तक के बीच वाले इलाके में मानव वास नहीं करते हैं. यह पूरा इलाका बाघों के अभ्यारण्य के रूप में जाना जाता हैं. यहाँ पर सरकार की बाँध बनाने की योजना है.इस कारण भी यहाँ पर जीवों के प्राकृतिक आवास खोने का खतरा हैं.

१९७० के दशक में बाघो की विलुप्त होती हुई प्रजाति के कारण सरकार ने 'प्रोजेक्ट टाइगर' चलाया था.१९७३ में जब बाघो की गिनती की गयी तो पूरे देश में बाघो की संख्या १८२७ थी.लेकिन २००३ के करीब यह संख्या घट कर १५०० के करीब हो गयी. मध्य भारत में बाघों की संख्या में ६०% की गिरावट देखी गयी. बाघो के गैर कानूनी शिकार के कारण इनकी संख्या में तेजी से गिरावट देखने को मिली.अगर यही हाल रहा तो आने वाले दिनों में पारिस्थितिकी-तंत्र गडबडा जायेगा.

भारत में अभी बाघो की पाँच प्रजाति पायी जाती हैं - रायल बंगाल टाइगर, इंडो-चाइनीज,साइबेरियन, सुमात्रा और साउथ चाइना . दो जातियाँ और पायी जाती थी जिसे आधिकारिक तौर पर विलुप्त करार दे दिया गया हैं.य हैं- बाली-कैस्पियन और जावा. बाघो के देख रेख के लिए अगर कोई नीति नही बनायी गयी तो वह दिन दूर नही जब हमें इन बची हुई पाँच प्रजातियों में से कुछ और प्रजाति देखने को ना मिले.


पर्यावरणविद इस दिशा में सरकार द्वारा सार्थक कदम उठाने की माँग कर रहे हैं. रायल बंगाल टाइगर की घटती हुई संख्या पर सरकार ने एक बार ध्यान दिया था लेकिन उसके बाद से कोई सार्थक प्रयास नही किये गये. वन्य विभाग के अधिकारी उनकी सुरक्षा के लिये तैनात किये जाते है न कि वन्य-जीवों को मारने के लिये.निश्चय ही यह चिंता का विषय है.

मंगलवार, 13 नवंबर 2007

सावरिया को किया शांत

ओम शांति ओम और सावरिया फिल्में दीवाली पर रिलीज़ हुई. दोनों फिल्मों को रिलीज करने से पहल निर्माताओं ने फिल्मों को प्रोमोट करने के लिये कोई कोर कसर नही छोडी .फिल्म रिलीज होने के बाद दर्शकों की प्रतिक्रिया से स्पष्ट हुआ कि जहाँ ओम शान्ति ओम दीवाली का बडा पटाखा साबित हुई वहीं सावरिया फुलझडी साबित हुई.
फरहा खान ने दर्शकों की पसंद का ध्यान रखते हुए अपने फिल्म में सभी तरह के मसालों का प्रयोग किया वही संजय लीला भंसाली ने पूर्व की फिल्मो की तरह कलात्मकता पर ज्यादा ध्यान दिया है. फरहा ने पुरानी हिन्दी फिल्मों के प्लाट को लेकर काफी अच्छे तरीके से मिलाकर पेश किया है. इसमे फरहा ने अपनी कलात्मकता का परिचय दिया. जबकि संजय ने दर्शकों का ध्यान नही रखते हुए अपनी कला को उन पर थोपने का प्रयास किया है.
सावरिया में दर्शकों को फिल्म काफी धीमी लगी. पूरे फिल्म में कहीं भी दिन का सीन नहीं है.नय़े सितारों के साथ फिल्म बनाने का रिस्क भी लिया गया.कलात्मक सेट के आगे अभिनय का कमजोर लगना, साथ ही यह फिल्म ऐसी फिल्म के सामने रिलीज हुई जिसके मुख्य सितारे शाहरूख थे. सावरिया को दर्शकों की प्रतिक्रिया का भी खामियाजा भुगतना पडा,संजय भी मीडीया पर इसलिये भडके कि दर्शकों के देखने से पहले ही अपना फैसला सुना दिया. ये वही संजय है जो कुछ दिन पहले मीडीया के ही मदद से ही फिल्म के प्रचार-प्रसार में जुटे थे.
फरहा ने पुरानी फिल्म 'कर्ज' से प्रेरित होकर और साथ ही साथ पुराने दौर के मसाले को एक सुत्र में पिरो कर 'ओम शांति ओम' दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया . सत्तर के दशक को पर्दे पर जीवंत करने का प्रयास किया,दर्शकों को यह प्रयास काफी भाया ,इसलिये फिल्म चल निकली. वैसे इस फिल्म ने प्रयोगधर्मिता के इस युग में कुछ नया देने का प्रयास नहीं किया. नयी तारिका दीपिका पदुकोणे का अभिनय लोगों ने सराहा और इसे आने वाले समय की उभरती नायिकाओ में काफी आगे जाने वाली अभिनेत्री माना.
फिल्मों के व्यवसाय करने की जहाँ तक बात है, दोनों फिल्में सफल तो होंगी ही,लेकिन कौन सी फिल्म दर्शकों के साथ साथ आलोचकों व समीक्षकों को प्रभावित करने में सफल होगी ,यह आने वाला समय ही बतायेगा.

बचपन बिना जीवन : एक 'गैप' यह भी

बाल श्रम पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के आने के बाद भी इस दिशा में कोई सुधार आता हुआ नही दिखायी दे रहा है.अखबारों में कभी कभी यह खबर देखने को मिल जाती है कि इस फैक्टरी से इतने बाल मजदूर छुडाये गये,लेकिन एक बडे स्तर पर कोई काम होता हुआ नही दिखायी दे रहा हैं. १४ वर्ष से नीचे के बच्चों को किसी भी तरीके के काम में लगाया जाना कानूनन जुर्म है.
हाल में अंतर्राष्ट्रीय कपडे बनाने वाली कंपनी 'गैप' ने जब भारत में अपने कपडे के निर्माण में बाल श्रम का उपयोग देखा तो उसने कपडे बाज़ार से वापस ले लिये. ऐसी स्थिति मे भारत की निर्माता कंपनी यह दलील देती है कि जब उन्हे कपडे बनवाने होते है तो मोल-जोल कर सस्ते दाम पर सौदा तय करते है,ऐसी स्थिति में यहाँ की कंपनियाँ बाल श्रम का सहारा लेती है.
भारत में बाल श्रम के लिये सबसे बडा कारण गरीबी को माना जाता है.गरीबी की स्थिति में अभिभावक अपने बच्चों को मजदूरी करने पर विवश करते है.उनको पढाने लिखाने का सामर्थ्य इनके पास होता नही है इस स्थिति मे बचपन से ही काम करने के लिये मजबूर किया जाता है. बच्चो की मनोस्थिति भी उसी तरह की बना दी जाती है कि अगर वो कमायेंगें नही तो खायेंगे क्या? उनके लिये भी पढने का कोई महत्त्व नही रहा जाता है.एक ही मकसद रह जाता है पैसा कमाना.
अशिक्षा भी इसमे काफी अहम भूमिका निभाती हैं. गरीब लोग इस आस में ाधिक से अधिक बच्चें पैदा करते है कि वो बडे हो कर ज्यादा से ज्यादा कमा कर देंगे.लेकिन उससे पहले उनकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति किस तरीके से होगी इसकी चिन्ता नही करते हैं.
यूरोपीय देशों में बाल श्रम के खिलाफ अठारहवीं सदी से ही मुहिम चलायी जा रही है,तब जा कर अभी वर्तमान में स्थिति काफी सुधरी हुई है. भारत में रातोंरात स्थिति सुधर जायेगी - ऐसी आशा करना बेकार है.
गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा भारत में बाल श्रम उन्मूलन की दिशा में काफी सार्थक प्रयास किये जा रहे है.सरकार को नीति बनाने के अलावा इसको लागू करने की दिशा में सार्थक पहल करनी चाहिये,तभी नीतियों का भी फायदा होगा.

नंदीग्राम का संग्राम

नंदीग्राम में जारी गतिरोध पर हम अगर नज़र डाले तो हम पाते है कि इसे मीडिया ने समय समय पर इस घटना को आम घटना की तरह ही लिया. पिछले सप्ताह हुई हिंसा के बाद जब प्रधानमंत्री डाँ मनमोहन सिंह का बयान आया,तब जाकर इस घटना पर मीडिया ने भी ध्यान दिया. एक लोकतांत्रिक राज्य में किस तरह एक जिला पिछले ग्यारह महीने से प्रशासन के अधीन नही हैं. राज्य सरकार द्वारा जब वहाँ यह घोषणा कर दी गयी कि यहाँ विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिये भूमि का अधिग्रहण नही किया जायेगा, तब वहाँ किसी तरीके की हिंसा होना वाकई किसी के हित में नही है. यह मुख्य रूप से वर्चस्व की लडाई का एक उदाहरण मात्र हैं.
नंदीग्राम मे जारी हिंसा के लिये राज्य सरकार जिम्मेदार है. राज्य सरकार का यह नैतिक दायित्व बनता हैं कि वहाँ कानून का शासन लागू हो ताकि लोगों में यह विश्वास जगे कि चंद मुठ्ठी भर लोग हथियार के बल पर कहीं कब्जा जमाकर ये नहीं कहे कि ये क्षेत्र हमारे द्वारा शासित है. अभी जो स्थिति उत्पन्न हुई है उसमे कहीं न कहीं १९७० के दशक में बंगाल में जारी हिंसा की झलक मिलती है. लेकिन स्थिति अब काफी भिन्न है.
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की तैनाती के बाद भी हिंसा की खबरें सुनने में आ रही है इसका मुख्य कारण वहाँ कि स्थानीय पुलिस के द्वारा मदद नही किया जाना बताया जा रहा है.अगर स्थानीय पुलिस का यही रवैया रहा तो वहाँ सामान्य स्थिति लाने में काफी समय लग सकता हैं. केंद्र द्वारा अतिरिक्त बल भी भेजा जा रहा है लेकिन जब तक स्थानीय लोगो से समर्थन नही मिलेगा तब तक कुछ नही हो सकता हैं.
राजनेताओं,सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और बुद्धिजीवियों के इसके समर्थन मे आने के बाद मीडिया ने भी इस खबर को ज्यादा तवज्जों दी. वाम दलों के घटक दल जब इसके विरोध में हो गये है,इससे समझा जा सकता है कि माकपा बचाव की मुद्रा में आ गयी हैं. माकपा समर्थकों के द्वारा ही नंदीग्राम में मेधा पाटकर को नहीं जाने दिया गया,फिर विपक्षी पार्टी के द्वारा बंद का सफल होना भी इस बात कि ओर इशारा करता है कि राज्य सरकार इस मुद्दे पर बुरी तरह विफल हुई हैं.स्थिति का जायजा लेकर वहाँ जल्द से जल्द कानून का शासन लागू करना ही राज्य सरकार की पहली जिम्मेदारी बनती हैं.तीस साल के शासन के बाद अगर सरकार ऐसा करने में अक्षम है तो यह समझ लेना चाहिए कि सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है.

सोमवार, 12 नवंबर 2007

स्टिंग का डंक

गुजरात दंगे पर दिखाये गये स्टिंग ऑपरेशन "ऑपरेशन कलंक " ने नयी बात कुछ नहीं बतायी हो,लेकिन इस खुलासे ने इसमे एक नया आयाम जोडा है. इसके प्रसारण के समय और तरीके पर प्रश्न उठाया जा रहा है,जो स्वभाविक भी है. मोदी को इससे फायदा मिलेगा,ऐसा सोच उनके विरोधी आशीष खेतान ,तहलका रिपोर्टर , के साहसिक प्रयास से खुश नही दिखायी दिये.मानवाधिकार कार्यकर्त्ता को इससे आस जगी कि न्याय मिलने मे यह एक मील का पत्थर साबित होगा।

मोदी समर्थक वर्ग ने इसे कांग्रेस व निरपेक्ष शक्तियों का षडयंत्र बताया,साथ ही इसे टेप मे दिखाये गये लोगो की प्रतिक्रिया को बढा-चढाकर बोलने वाला बताया.वहीं मोदी विरोधी वर्ग को यह भय सता रहा है कि इससे हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण एक बार फिर से मोदि के पक्ष मे हो जायेगा ।

मीडिया भी पशोपेश मे है कि कहीं इसका फायदा मोदी सरकार को आने वाले चुनाव मे ना मिल जाये.एक तरफ तो गुजरात के मुसलमानों की स्थिति पर मीडिया स्पेशल कार्यक्रम,डाक्युमेंट्री बना रहा है,ताकि सरकार उनकी सुध ले सके,उनके स्थिति मे सुधार आये ,उन्हें इंसाफ मिल सके. दूसरी तरफ यह सच्चाई लाने का प्रयास किया जा रहा है,जो कि फिर से गुजरात मे मोदी की सरकार लाने मे सहायक साबित हो सकता है।

गुजरात का मुस्लिम समुदाय अपने घावों को भरने की कोशिश कर रह हैं,अपने पैरों पर खडा हो कर एक सामान्य जीवन जीने की स्थिति में आ चुका हैं,वैसे में ये प्रयास उनके घावो को कुरेदने जैसा है .
स्टिंग की विश्वसनीयता इधर घटी है ऐसी स्थिति में यह स्टिंग सच्चाई को सामने लाने के उद्देश्य से ही की गयी, या इसके पीछे कोई निहित स्वार्थ था-ऐसे प्रश्न दर्शकों के दिमाग में उठना लाजिमी है.रिपोर्टर के द्वारा स्वयं को हिन्दू भावनाओ का हिमायती बताकर दंगो को अंजाम देने वालो के मुख से सच्चाई निकलवाने पर इस ऑपरेशन की नैतिकता पर सवाल उठाये जा सकते है लेकिन ऐसा प्रयास करने वाले कितने पत्रकार होंगे।

स्टिंग के प्रसारण को ग्राफिक्स के जरिये प्रभावी बनने का प्रयास तो किया गया , लेकिन इसके त्वरित और दूरगामी प्रयास पर ना चर्चा हुई ,ना ही इसे समझाने का प्रयास ही हुआ.चैनल ने टी.आर.पी. बटोरी और क़ाम खत्म.

गुरुवार, 8 नवंबर 2007

वो बात नही रही

भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही मौजूदा क्रिकेट सीरीज मे अब पहले वाली बात नही रही . २००४ मे ही हुई सीरीज की बात करे तो उस समय दर्शको मे काफी जोश था . भारत का पाकिस्तान दौरा काफी सफल रहा था. तब से हो रहे द्विपक्षीय सीरीज अब दर्शको मे वह उत्साह् पैदा नही कर पा रही है. इसका मुख्य कारण दोनो देशो के बीच लगातार मैच खेले जा रहे है. हाल के मैचो मे भारत को लगातार मिली रही सफलता ने भी इसका आकर्षण खत्म कर दिया है. १९८३ विश्व कप के बाद भारत पाकिस्तान के खिलाफ लगातार सफल होता रहा लेकिन शारजाह मे चेतन शर्मा की अन्तिम गेन्द पर जावेद मियादाद के छक्के ने तो भारत के जीत पर एक तरह से ग्रहण ही लगा दिया. पाकिस्तान जीतते चला गया. नब्बे के दशक मे तटस्थ स्थानो पर मैच होने लगे . शारजाह मे तो भारत को कम ही जीत नसीब होती. टोरन्टो मे भी दोनो टीमो को सफलता तो मिली, लेकिन अपने देश मे ना खेलने के कारण दोनो देशो को वो समर्थन नही मिल पाता जो मिलना चाहिये था. लेकिन इस दौरान हुए विश्व कप मे भारत ने पाकिस्तान को हमेशा हराया. कारगिल मे हो रहे सन्घर्ष के बीच १९९९ के विश्व कप के दौरान तो भारत ने देशवासियो को जीत का नायाब तोहफा दिया. २००३ मे भी पाकिस्तान पर जीत का जश्न हमने मनाया तो सही , भले ही हम फाइनल मे हार गये.
२००४ से शुरू हुआ दोनो देशो के बीच एक- दूसरे के यहाँ सीरीज खेलने का सिलसिला . शुरूआती वर्षो मे तो इसे काफी सफलता मिली , दोनो देशो के बीच दर्शको का आना जाना हुआ ,रिश्तो मे सुधार आया . राजनेताओ से मिलना व उनकी शुभकामना लेना ने इसे 'क्रिकेट डिप्लोमेसी ' का नाम दिया.
२००७ आते आते दोनो टीमो का मुकाबला आम बात हो गयी. विश्व कप मे तो मुकाबला नही हो सका ,लेकिन क्रिकेट के नये अवतार ट्वेन्टी-२० के विश्व कप मे भारत ने अपने चिर प्रतिद्वन्दी को दो बार हराया. खिताबी जीत भी पाकिस्तान पर ही हासिल हुई थी, जीत का मजा दुगुना हो गया.
मौजुदा सीरीज मे भारत का पलडा भारी होने के कारण ही सीरीज इतना उत्साह नही देखने को मिल रहा है.

बुधवार, 7 नवंबर 2007

पटाखा बजा

दीवाली के दौरान पटाखे फोडना बच्चो को काफी अच्छा लगता है लेकिन ये स्वास्थ्य के लिये कितना हानिकारक है इसकी जानकारी उन्हे नही होती . वायु प्रदुषण ऍवम ध्वनि प्रदूषण मे इससे काफी इजाफा होता है. पटाखे बनाने वाले निर्माता सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किए गये मानदन्डो का पालन नही करते. १२० डेसीबल की तीव्रता से ध्वनि करने वाले पटाखे बनाने की छूट सुप्रीम कोर्ट ने दे रखी है, लेकिन डेसीबल मीटर पर जाँच करने पर पाया गया कि जितने भी पटाखे बनाये जा रहे है उनकी तीव्रता १४० डेसीबल से ज़्यादा है, जो कि कोर्ट के आदेश का उल्लन्घन है.
मानव कान के लिए ८० डेसिबल तक की आवाज़ सही मानी जाती है, अतः ६० डेसिबल तक के आवाज के पटाखे बनाने के लिये अनुमति दी जानी चाहिये.

दीवाली के दौरान वायु प्रदूषण एक बडी समस्या के रूप मे उभर कर आती है.पटाखे फोडने के बाद उसमे से निकलने वाले सूक्ष्म कण सल्फर , निकलने वाली हानिकारक गैसे जैसे कार्बन मोनोऑक्साइड, सल्फर मोनो ऑक्साईड स्वास्थ्य पर काफी बुरा असर डालती है. सल्फर जैसे सूक्ष्म कण साँस के द्वारा फेफडो मे चले जाते है जिससे कि अस्थमा , ब्रोन्काइटिस जैसी खतरनाक बीमारी भी होने की सम्भावना रहती है.

भारत के महानगरो मे प्रदूषण की समस्या पहले से ही व्यापत है. दीवाली के दौरान ये बढकर काफी ज्यादा हो जाती है . मौसम मे बदलाव भी इसी समय होता है जिस कारण से धूए और कुहासे का मेल और भी खतरनाक होता है.