मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

नफरतों के फल जायका नहीं देते.

रंज दे कर आखिर क्यूँ मुस्कुरा नही देते
तुम सजा तो देते हो, हौसला नही देते
मौसमों की साजिश से पेड फल तो देते हैं,
नफरतों के फल जायका नहीं देते।


एक शायर ने हाल में ही क्या खूब कहा. देवबंद के दारूल उलूम के द्वारा आतंकवाद को गैर-इस्लामिक घोषित किये जाने के बाद ये शायरी खूब फिट बैठती हैं उन नफरतों के सौदागरों पर जो बेमतलब के अमन और शांति के दुश्मन बने हुये हैं.

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008

"तमाशबीन" शब्द का सही अर्थ क्या हैं?

तमाशबीन बनी देखती रही पुलिस
यह स्लग आज दोपहर बारह बजे देश के सबसे तेज कहे जाने वाले समाचार चैनल 'आज तक' पर बिहार के हाजीपुर की घटना के संदर्भ में बार बार दिखाया जा रहा था. पुलिस के सामने एक आरोपी युवक को पीट पीट कर अधमरा करने के फूटेज भी दिखाये जा रहे थे.
बाद में समय चैनल ने भी इसी शीर्षक का उपयोग अपने न्यूज फ्लैश में भी किया.
पुलिस तमाशा तो देखती रही, लेकिन क्या वह वाकई में तमाशबीन थी या तमाशाई? कॉलेज में पढने के क्रम में एक शिक्षक ने तमाशबीन शब्द पर जोर देते हुये कहा था कि इसका अर्थ कोठे पर जाने वाला होता हैं, सही शब्द हैं तमाशाई.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस शब्द का धडल्ले से उपयोग हो रहा हैं. बी.बी.सी. हिन्दी की साइट पर भी इस शब्द का प्रयोग अँग्रेजी के ऑनलुकर या स्पेक्टेटर के रूप में होता हैं.क्या यह इस शब्द का सही अर्थ हैं या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हमारे लिये नई शब्दावली गढ रहा हैं?

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

धोनी ने फिर मारा "छक्का"

क्रिकेट में छक्का मारने में माहिर भारतीय टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने मंगलवार को श्रीलंका के खिलाफ एक अहम मुकाबले में भले ही एक भी बाउंड्री नही मारी हो,लेकिन आई.पी.एल. लीग के लिये लगने वाली बोली में वे ही एक मात्र खिलाडी थे जिन्हें छह करोड में चेन्नई सुपर किंग टीम ने खरीदा.यानि कि मैदान के बाहर भी छक्का मारने में वे ही सफल हुये.
एक समय था जब मैदान में टीम इंडिया को जीतने के लिये कुछ रनों की आवश्यकता होती थी तब धोनी से दर्शक छक्का मार जिताने की डिमांड करते थे.लेकिन आज समय के अनुरूप खेल में काफी परिवर्त्तन किया और अब एक अच्छे फिनीशर की भूमिका बखूबी निभा रहे हैं.एक चौका भी नही लगा श्रीलंका के खिलाफ मैच जिताना धोनी की जीवटता की निशानी हैं. काफी कम समय में कप्तान के पद पर पहुँचने में उनकी समझदारी ने ही अहम भूमिका निभायी,नही तो युवराज का कप्तान बनना तय माना जा रहा था.
धोनी की ऊँची कीमत मे उसके ब्रांड वैल्यू ने भी बडी भूमिका निभायी.बाजार के इस फॉर्मूले ' जो दिखता हैं वह बिकता हैं'ने भी धोनी की कीमत तय करने में मदद की. पैसे की बरसात के बीच उसके पिता पान सिंह धोनी ने कहा खूब तरक्की करे मगर पैर जमीन पर ही रहे तो अच्छा हैं. राँची जैसे छोटे शहर से निकलकर क्रिकेट जगत में लोहा मनवाने वाले धोनी के पैर जमीन पर ही हैं, मीडिया में ही समय समय पर कप्तान के रूप में मनमानी करने के आरोप लगते रहते हैं. युवराज को हालिया श्रृंखला में असफल रहने के बावजूद मौका देने को मीडिया ने काफी जोर शोर से उठाया , लेकिन अंततः धोनी का निर्णय सही साबित हुआ.
आई. पी. एल. लीग में सबसे ज्यादा बोली लगने के बाद उनके ब्रांड वैल्यू में और भी इजाफा हुआ हैं,लेकिन दर्शक अभी भी उनके द्वारा यॉर्कर बॉल पर छक्का मारते देखना चाहते हैं ,जो कि उनका कॉपीराइट शॉट हैं.ना कि मैदान के बाहर लगने वाले ये छक्के.

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

खल गया खली का हारना

हिन्दी खबरिया चैनलों के लिये पिछले कई महीनों से हाथ लगा एक मसाला एकाएक इस रविवार को हाथ से फिसल गया. तीन मिनट में डब्लयू.डब्लयू.ई. के रेस्टलिंग मुकाबले में धूल चाटने वाले खली ने देश के सभी प्रमुख चैनलों के प्राइम टाइम के तीन तीन घंटे की बाट लगा दी. खली का हारना इतना खला कि उसकी हार को प्राइम टाइम में तीन मिनट भी नहीं मिले.
टी.आर.पी. के खेल ने जहाँ देश के सभी हिन्दी चैनलों को खली का खेल दिखाने को मजबूर किया, वहीं इसकी हार ने इस खबर पर सोमवार को चैनलों को खेलना का मौका नहीं दिया. शनिवार और रविवार को सभी न्यूज चैनल खली की खबर पर इतना खेले कि उन्हें आगे खेलने का मौका ही नहीं मिला.
हकीकत जैसी खबर वैसी का दावा करने वाले चैनल " जी न्यूज" ने तो शनिवार को प्राइम टाइम में खली के अलावा आधा घंटा संजय दत्त की शादी बचाने को दे दिया नही तो पता ही नही चल रहा था कि हम कोई समाचार चैनल देख रहे हैं. रविवार को भी वही हाल रहा.'जूनियर खली', 'खली बनो बजरंगबली' जैसे कार्यक्रम जारी रहे.लेकिअन हार को अगले दिन तीन मिनट भी नहीं मिले.
आज तक ने भी इसमे कोई कसर नही छोडी. स्टार न्यूज तो कितनी बार खली को ही दिखाकर टी.आर.पी. के खेल में नंबर वन चैनल बना था तो वो भी पीछे नहीं रहा.आज तक ने 'खेल रहा है खली' , 'आई लव यू खली' और 'खली बन जा काली' दिखा अपने प्राइम टाइम के समय का सही उपयोग किया.
अंततः खली का हारना इन चैनलों के लिये सबसे बडी हार साबित हुयी. फिर से उन्हीं खबरों पर लौटना जो कि टी.आर.पी. ला सके की खोज जारी हैं. इंतजार करते रहिये अगले खली या राम का जो कि प्राइम टाइम पर करिश्मा दिखा सके.

बिजनेस अखबारों ने भी समझा हिन्दी का मह्त्त्व

"हिन्दी तो देश की धडकन हैं"- प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने आवास पर आये इकोनॉमिक टाइम्स के पत्रकारों से कहा, जब उन्होनें इस अखबार का हिन्दी संस्करण का पहला अंक प्रधानमंत्री को सौंपा.पिछले एक हफ्ता में यह बिजनेस अखबारों का हिन्दी में निकलने वाला दूसरा पत्र बना. इससे पहले बिजनेस स्टैंडर्ड ने भी हिंदी में ही बिजनेस अखबार निकाला. इस तरह एक ही सप्ताह में देश के दो अँग्रेजी के प्रमुख बिजनेस अखबारों ने अपना हिन्दी में संस्करण निकाल जहाँ हिन्दी भाषी वर्ग के बीच अपनी पैठ बनाने की सोची हैं, वही यह बात भी साबित हो रही हैं कि इस देश में अभी भी हिन्दी भाषा का अँग्रेजी से कमतर महत्त्व नही हैं.
देश में पहले से ही दो हिन्दी के बिजनेस चैनल - सीएनबीसी आवाज और जी बिजनेस दर्शकों में बाजार में होने वाले उठापटक की तस्वीरें दिखाकर सम्मोहित करने में कोई कसर नहीं छोड रखा हैं.अब जाकर प्रिंट मीडिया ने भी इस तरफ पहल की हैं, जो कि आने वाले समय में काफी लाभ का सौदा साबित होगा. इकोनॉमिक टाइम्स ने तो इससे पहले गुजराती संस्करण निकाल क्षेत्रीय भाषा में अपनी पैठ बना रखी थी, वहाँ की सफलता देख हिन्दी में बिजनेस अखबार निकालना मुनाफे का ही सौदा लगा. अब किसी भी काम का बॉटमलाइन जहाँ सिर्फ प्रॉफिट रह गया हैं वहाँ इन बिजनेस अखबारों के इतने दिन बाद निकलने का सिर्फ यही एक मतलब हैं.
शेयर बाजार में रोज हो रही उठा पटक को समझने के लिये भी सिर्फ चैनलों या अखबारों के एक पन्ने के भरोसे तो नहीं रहा जा सकता हैं इसलिये हिन्दी भाषी लोगों के लिये यह एक जरूरत भी बन गयी. लाल-पीले रंग के दिखने वाले इन अखबारों को पढकर एक्सपर्ट तो नहीं बना जा सकता हैं लेकिन बाजार की भेडचाल को समझने के लिये एक माध्यम हो सकता हैं.
बाजार की समझ और हिन्दी में पकड रखने वालों के लिये भी बिजनेस पत्रकारिता के नये एवेन्यू खुलेंगे.एक बार तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक बिजनेस अखबार ने बहुत पहले अपने अखबार में कॉलम लिखने के लिये एक लाख रूपये महीने देने की पेशकश की थी, लेकिन इतनी बडी राशि होने के कारण उन्हें यह जँचा नही. हिन्दी अर्थशास्त्रीयों के लिये भी यह सुनहरा मौका होगा कि वे भी अपना ज्ञान इन अखबारों के माध्यम से पाठकों के साथ शेयर करें.
बाजार ने भी अंततः हिन्दी की महत्ता समझी,लेकिन इसमें भी लाभ देखकर ही,ऐसे नहीं.

शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

अगर शादी करने जा रहे हैं तो बनाइये अपना "वेडपेज"

जी हाँ. इंटरनेट के इस युग में अगर अपने दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले संबंधियों और दोस्तों को इस बात की शिकायत रहती हैं कि कार्ड नहीं मिला,तो उनकी इस शिकायत को दूर करने के लिये भी इंटरनेट पर ऐसी सेवायें मौजूद हैं कि आप अपने सगे-संबंधियों को ई-निमंत्रण भेज सकते हैं.इसके लिये आपको कुछ ऐसी साइटे है जहाँ जाकर अपना रजिस्ट्रेशन करवाना होगा.और अपने मनपसंद ले-आउट में, पसंद के रंगों में ऐसे "वेडपज" बना सकते हैं,जिसमे कि आपकी,आपके जीवन-साथी की जानकारी,तस्वीरें और शादी के कार्यक्रमों की पूरी सूचना के अलावा शादी-स्थल की जानकारी और आपके शहर में पडने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण स्थलों की जानकारी हो सकती हैं.
अभी अपने देश में यह पहल नयी हैं,फिर भी ऐसे साइटों पर इसके विषय में जानकारी लेनेवालों की कमी नहीं है.ये साइटे हैं- ऑवरवेडिंग.इन , फर्स्टफेरा.कॉम और माईड्रीमशादी.कॉम . इन साइटों पर जाकर आप भी अपनी शादी के निमंत्रण कार्ड बनवा सकते हैं और इसे अक्सेस करने के लिये अपने सगे संबंधियों को इसका कोड भेज सकते हैं.इतना ही नही अगर शादी के बाद भी आप अपनी शादी को यादगार बनाकर रखना चाहते हैं तो शादी के फोटो डॉउनलोड कर इस वेडपेज को लंबे समय तक भी रख सकते हैं.
अब आपके दूर के सगे संबधी इस बात की शिकायत तो नही कर सकेंगे कि आपका तो कार्ड ही नही मिला,इतना ही नहीं शादी की सूचना मिलने के बाद उनकी यह जिज्ञासा भी कि लडका या लडकी क्या कर रहे हैं? कैसे हैं? कब मिले? क्या फैमिली बैकग्राउंड हैं- शांत हो जायेगी. इन सब चीजों की जानकारी वेडपेज पर रहने से आप भी इन तरह के सवालों से बच जायेंगे.
अब आप आसानी से अपने डी-डे की सूचना आने सगे संबंधियों या यारों-दोस्तों को एक नये तरीके से दे सकते हैं.तो देर किस बात कि हैं अगर शादी करने जा रहे हैं तो एक "वेडपेज" भी बना डालिये नये तरीके से आमंत्रण भी दे डालिये.

मुंबई हमारी....क्यूँ भाई चाचा, हाँ भतीजा.

मुंबई और महाराष्ट्र के और इलाकों से उत्तर भारतीयों का पलायन होना जारी हैं.मुंबई से रेल से जुडे उत्तर भारत के प्रमुख शहर के स्टेशनों पर सैकडों की संख्या में भागकर वापस आए लोगों का यह कहना कि अपने यहाँ रूखा-सूखा ही क्यों ना मिले वही खाकर रह लेंगे, लेकिन वापस बंबई नहीं जायेंगे - यह अपने आप में एक दर्द को बयाँ करता हैं. यह दर्द हैं उनकी उस बेबसी का जिसमें उनकी राज्य की सरकारें अपने यहाँ दो वक्त की रोटी नहीं मुहैया करवा पा रही हैं और अगर दूसरे राज्य में जाकर अगर किसी तरह दो जून की रोटी मय्यसर होती हैं तो वहाँ के सियासतदाँ अपनी सियासत चमकाने के खातिर संविधान तक को बदलने की मांग करते हैं.
जी हाँ, बात हो रही हैं महाराष्ट्र में पिछले एक पखवाडे से चल रही उठा पटक करने वालों की. बात हो रही हैं राजनीति में अपनी पारी शुरू करने वाले राज ठाकरे की, जो कि अपने चाचा शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के राजनीतिक वारिस तो नही बन सके,लेकिन उनकी ही पुरानी नीति पर चलकर अपनी राजनीति को चमकाने का काम किया हैं.यही हैं राज की 'राजनीति'.
साठ के दशक में जहाँ बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीयों को खदेड कर अपनी राजनीति चमकाने का काम किया था,वही काम आज उनके भतीजे राज उत्तर भारतीयों को खदेडकर कर रहे हैं और काफी हद तक इस काम में उन्हें सफलता भी मिली हैं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस युग में काफी कम समय में राज ठाकरे को लोगों ने जान लिया.उनके इस दाँव से शिव सेना को अपने हाथ से मराठी मानुष,मी मुंबईकर का मुद्दा निकलता हुआ नजर आ रहा हैं. इसलिये तो 'सामना' में तरह तरह के आलेखों के द्वारा अपने बिखरते वोट बैंक को बचाने की कवायद दिन-प्रतिदिन की जा रही हैं.
महाराष्ट्र सरकार के द्वारा हिंसा के शुरूआती दिनों में अपने से कोई कदम नहीं उठाना भी उनकी इसी मानसिकता का परिचायक हैं.केंद्र सरकार के कहने पर ही कुछ कदम उठाये गये,लेकिन ये भी नाकाफी साबित हो रहे हैं.लोगों का पलायन जारी हैं,उनको एक नयी जिंदगी शुरू करने की मजबूरी एकाएक सामने आन पडी. जब अपने देश में ही इस तरह की स्थिति का सामना करना पडेगा तो फिर राष्ट्रीय एकता का क्या मतलब रह जायेगा.
इस तरह की राजनीति कर देश का कोई भला नहीं होने वाला हैं . क्षेत्रीयता,जातीयता,संप्रदायिकता और भाषावाद पर होने वाली राजनीति से किसी का भला नही होता हैं, भला होता हैं तो सिर्फ राजनेताओं का जो लोगों के मन में छिपी इस तरह की भावनाओं को उभारकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का काम करते हैं और पिसती हैं आम जनता . हाल की ही घटना की बात करे तो नासिक में मरने वाला पहला व्यक्ति महाराष्ट्रीयन ही था.क्या राज ठाकरे के पास इस बात का कुछ जवाब हैं,नहीं उन्हें तो अपनी राजनीति करने से मतलब हैं.
ऐसा भारत में कब तक चलेगा? इसका तो फिलवक्त कोई जवाब नही हैं,लेकिन राजनीति करने वालों के लिये तो ऐसा चले तो वो ही अच्छा हैं.हमारा क्या हैं? यूँ ही पिसते रहेंगे. तब तक चाचा के सुरों पर भतीजे को अपनी तान छेडने दिया ज़ायें.

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

"ओबामा" वर्सेस "ओसामा"

अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव होने में अभी काफी दिन बाकी हैं.डेमोक्रेट के उम्मीदवार के रूप में बराक ओबामा का चयन लगभग तय ही माना जा रहा हैं,ऐसी स्थिति में परिवर्त्तन चाह रहे अमेरिकी इस बार सत्ता में डेमोक्रेटिक़ उम्मीदवार को ही राष्ट्रपति बनायेंगे.अगर सब कुछ सही चलता रहा तो बराक ओबामा का अगला राष्ट्रपति बनना तय माना जा रहा हैं.तो ऐसी स्थिति में अमेरिका पहली महिला राष्ट्रपति के बजाए पहला अश्वेत राष्ट्रपति पा जायेगा.इतिहास तो बनना तय माना जा रहा हैं.
नाम में क्या रखा हैं? ऐसा भले ही शेक्स्पीयर महोदय कह गये हो लेकिन अगर ऊपर वाली स्थिति बनती हैं तो फिर पूरे विश्व में आतंकवाद को बढावा देने वाले और आतंकवाद को समाप्त करने वाले दो प्रमुख शख्स के नामों में सिर्फ एक अक्षर का ही फर्क रह जायेगा और वो भी उल्टा. अक्षर हैं - 'ब' और 'स'. जिस शख्स के नाम में 'ब'हैं,वह उसे समाप्त करने की कोशिश करता नजर आयेगा,जबकि ठीक इसके उल्ट जिसके नाम में 'स' हैं वह तो इसे बढाने का काम कर ही रहा हैं. तब यह जंग और भी रोचक हो जायेगी.
पूरे विश्व के लिये नासूर बनता जा रहा आतंकवाद अब सिर्फ एक देश कि लडाई ही नही बन कर रह गया हैं,इस दिशा में सभी देशों को एक साथ पहल करनी होगी.यह आने वाले दिनों में ओबामा वर्सेस ओसामा की लडाई बन कर नही रह जायें. अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को आतंकवाद से लडने के लिये दिये गये धन का उपयोग जिस तरह पाकिस्तान ने भारत से लडने के लिये किया वह सही नही हैं, आज वही पाकिस्तान बारूद के ढेर पर खडा हैं.
विश्व के सभी देश किसी ना किसी रूप में इस नासूर से त्रस्त हैं इस लिये आने वाले समय में समेकित पहल की जरूरत हैं, भले ही इसे नाम देने के लिये "ओबामा" वर्सेस "ओसामा" का नाम दे दिया जायें.

प्रेमियों के लिये तो हैं ही वसंत

हर साल १४ फरवरी आती हैं और बीत जाती हैं. एक दशक पहले तो यह एक आम तारीख हुआ करती थी.आयी और गयी.लेकिन इस एक दशक में ही इतना कुछ बदल गया हैं कि सभी इस तारीख का इंतजार किया करते हैं.चाहे प्रेम करने वाले प्रेमी जोडे हो या इस पर पहरा देने वाले हमारे संस्कृति के ठेकेदार. जी हाँ, हम बात कर रहे हैं वेलेंटाइन डे की,जिसे खास तौर पर विदेश से प्रेम करने वाले दिन के रूप में आयातित किया गया हैं या यूँ कहे कि बाजारवाद ने इसे हम पर थोप दिया हैं.
बात करते हैं प्यार का इजहार करने वाले इस दिन की. संयोग से यह तारीख उस समय पडती हैं जब पूरा वातावरण बसंत के आगोश मे पहले से ही खोया रहता हैं. बसंत तो यूँ ही प्यार का प्रतीक हैं, एक दिन क्यों, हम पूरे महीने प्यार के उत्सव को मना सकते हैं,लेकिन नही मनायेंगे तो इसी खास तारीख को ही.चलिये आज की तेज भागती हुयी जिंदगी में एक ही दिन सही.प्रेमी जोडे को जिस शिद्दत से इस दिन का इंतजार रहता हैं उसी तरह इस दिन का इंतजार उनके प्रेम में खलल डालने वालों को भी रहता हैं,क्योंकि मुफ्त में उन्हे मीडिया का एटेंशन मिल जाता हैं जो कि उनकी राजनीति को चमकाने के लिये काफी जरूरी होता हैं.जगह जगह प्रदर्शन किया, तोड फोड की हो गया उनका वेलेंटाइन विरोध.
इन दोनों वर्गों से भी एक बडा एक वर्ग है जो कि इस दिन का रचयिता हैं यानि की बाजार. कार्डस,फूल,गिफ्ट और ना जाने क्या क्या सभी चीजों की बिक्री आने चरम पर रहती हैं. यह बाजार ही डिसाइड करता हैं कि कैसे अपने स्रोतों का उपयोग कर इस दिन को अपने लिये ज्यादा फायदेमंद बनाया जा सके. मीडिया भी इस चीज में बाजार का खूब साथ देती हैं. टी.वी. चैनलों और एफ.एम रेडियो स्टेशनों में तो सप्ताह बर पहले से ही इस दिन के लिये कार्यक्रमों की रूपरेखा खींच ली जाती हैं. वो स्वयं ऐसा नही करते बल्कि बाजार उनसे ऐसा करवाता हैं.
इस बार तो प्रेम के इस उत्सव को सफल बनाने के लिय जगह जगह प्यार में खलल डालने वालों से बचाने के लिये पुलिस का पहरा लगाया गया था. इस बात की खुशी प्रेमी जोडे के चेहरों पर देखी जा सकती थी.लेकिन उनकी खुशी को भी घर के लोगो के द्वारा जब जासूस लगवाकर मॉनिटर किया जाता हैं तो बात वही पर घूम फिर कर आ जाती हैं क्यों ना हम कितने मॉड बने घूमते फिरते हैं,सोच तो अभी भी भारतीय ही हैं.यही अपनी संस्कृति हैं और अपनी संस्कृति में तो प्रेम के लिये एक दिन नहीं पूरा महीना हैं.महीना क्या, साल हैं बशर्तें कि आप सही से देखे तो.

फिल्में भी परिवर्त्तन के वाहक बने तो अच्छा हैं..

सिनेमा समाज का आईना होती हैं.कभी कभी समाज को भी इससे काफी कुछ सीखने को मिलता हैं.आमिर खान की निर्देशक के रूप में पहली फिल्म 'तारे जमीन पर' ने जहाँ सफलता के नये प्रतिमान स्थापित किये वही इस फिल्म से समाज के कुछ क्षेत्रों में बदलाव भी आने शुरू हो गये हैं.फिल्म में डिस्लेक्सिया से पीडित बच्चे को रचनात्मक तरीके से समझाना और उसकी भीतर छिपी हुयी प्रतिभा को बाहर लाना दिखाया गया हैं.
इस फिल्म का समाज पर पडने वाले असर की बात करें तो अभिभावक अब अपने बच्चों की पढाई के प्रति कम रूचि होने के कारणों को खोजने में ज्यादा लग गये हैं. अखबार में छपी एक खबर की बात करे तो अब डॉक्टरों के पास अभिभावक बच्चों को इस लिये लेकर आने लगे कही उनका बच्चा डिस्लेक्सिया बीमारी का शिकार तो नहीं. डॉक्टरों ने भी इस तरह के केसेज बढने के भी संकेत दिये हैं.
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानि सी.बी.एस.ई. ने भी इस बार से बोर्ड के परीक्षा में इस बीमारी से ग्रसित बच्चों को एक घंटा ज्यादा समय देने का फैसला किया हैं.इस तरह हम पाते हैं कि यह सीधा सीधा इस फिल्म का ही असर हैं नही तो इससे पहले इसके विषय में सोचा भी नही गया था.
फिल्मों के माध्यम से अगर इसी तरह भविष्य में समाज और देश के समस्याओं में किसी तरह का सुधार आता हैं तो निश्चय ही यह फिल्मों का एक अच्छा योगदान साबित होगा. मनोरंजन के साथ साथ लोगों के मन-मस्तिष्क को झकझोरने वाली फिल्में हमेशा के लिये एक मिसाल बन जाती हैं.