गुरुवार, 30 अक्तूबर 2008

भारत विश्व-चैम्पियन बनने की राह पर..

आज के दिन जब राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक जगत से अच्छी खबर सुनने को नहीं मिल रही,वहीं खेल जगत से विश्व चैम्पियन बनने और विश्व चैम्पियन को धूल चटाने की खबर सुनने को मिल रही हैं.जहाँ एक तरफ भारत के ग्रैंड-मास्टर विश्वनाथन आनंद ने विश्व शतरंज चैम्पियन का खिताब बरकरार रखा हैं वहीं दूसरी तरफ भारत ने क्रिकेट के विश्व चैम्पियन ऑस्ट्रेलिया को मोहाली टेस्ट में बुरी तरह हराने के बाद दिल्ली टेस्ट में पहली पारी में स्थानीय खिलाडी गौतम गंभीर और ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ शतक जमाने में माहिर वेरी वेरी स्पेशल लक्ष्मण के दोहरे शतकों की मदद से ६१३ रन का विशाल स्कोर खडा कर दिया हैं, यहां से भारत की जीतने की ही संभावना बनती हैं. अगर ऑस्ट्रेलिया अच्छा खेल गया तो ज्यादा से ज्यादा ड्रॉ होगा, हारेंगे तो नहीं.
जर्मनी के बॉन में विश्वनाथन आनंद की ब्लादीमीर क्रेमनिक पर ६.५-४.५ अंकों की विजय पिछ्ले साल क्रेमनिक द्वारा की गयी इस टिप्पणी का करारा जवाब हैं जिसमें क्रेमनिक ने यह कहा था कि आनंद कागज पर भले ही विश्व चैम्पियन हो, लेकिन मेरे विचार से किसी एक मैच के जीतने से खिताब जीतना व एक टूर्नामेंट जीत खिताब जीतने में काफी फर्क होता हैं.आनंद ने इसका जवाब शतरंज के बिसात पर दिया और नाम के अनुरूप शतरंज में विश्वनाथन हो गये. निश्चय ही यह भारत के लिये एक ऐतिहासिक क्षण हैं.
इसी तरह क्रिकेट में भी विश्व चैम्पियन ऑस्ट्रेलिया के बडबोलेपन का भी जवाब टूर्नामेंट जीतकर ही देना चाहिये. मोहाली टेस्ट के हारने के बाद ऑस्ट्रेलियाई कप्तान रिकी पोंटिंग का यह कहना कि हमें सीरिज में १-० से पिछ्डने की आदत नहीं हैं,यह उनके दंभ को दर्शाता हैं. जो कि अब और बुरी तरीके से टूटने वाला हैं.
भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच हो रही टेस्ट सीरिज शुरू होने से पहले भले ही सीनियर बनाम जूनियर खिलाडियों के चुनने को लेकर मीडिया की सुर्खियाँ बटोरा. सौरव का सीरिज के बाद संन्यास लेना भी खबर बनी, इससे बडी खबर सौरव का शतक बना,जिसे देखने के लिये क्रिकेट-प्रेमियों को काफी लंबा इंतजार करना पडा. लेकिन अब जब सीरिज के मध्य में जब सभी खिलाडियों ने अपना-अपना योगदान दे दिया हैं, तो सीनियर बनाम जूनियर खिलाडियों की बहस को कुछ दिनों के लिये ठंडे बस्ते में ही डाल देना ठीक होगा.
अब तो भारत को या यूँ कहे टीम इंडिया को इस सीरिज को जीतकर विश्व-चैम्पियन बनने की ओर कदम बढाना चाहिये विश्वनाथन आनंद की तरह.

मंगलवार, 2 सितंबर 2008

काम करने वाले को फुर्सत हैं क्या?

बिहार में आयी महाप्रलय के बीच बयानों की बाढ के बीच राज्य के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का यह बयान काफी मायने रखता हैं क्योंकि काम करने वाला व्यक्ति चुपचाप अपने काम को अंजाम देता हैं ना कि उस चीज काढिढोरा पीटता फिरता हैं. वैसे हमेशा से ही राजनेताओं को ऐसे ही मौकों की तलाश रहती हैं जहाँ कि उनकी राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जा सके. भारत का अपने को सबसे बडा और सफल रेल मंत्री मानने वाले रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव बाढ के दौरान खबरिया चैनलों पर इतनी तेजी से आ रहे हैं कि वह एक तरीके से इस पूरे महाप्रलय के प्रवक्ता बन गये हैं.
संकट के इस घडी में यह घोषणा करना कि बाढ पीडितों के लिये रेलयात्रा में कोई किराया नहीं लिया जायेगा और इस बात के लिये हमेशा क्रेडिट लेना कि मैंने ये करवाया वो करवाया - राजनेताओं के मानसिक दिवालियेपन की निशानी हैं. आखिरकार इन्हें प्रतिनिधि बनाकर भेजा गया हैं तो यह इनका कर्त्तव्य हैं कि जनता की हरसंभव मदद की जाये. प्राकृतिक आपदाये बताकर तो नही आती हैं. ऐसे समय भी सियासत करना और मीडिया के माध्यम से एक-दूसरे के जवाबों का जवाब देना कहाँ तक जायज बनता हैं, इसका फैसला वक्त आने पर जनता ही करेगी.
बिहार में बाढ आना कोई नयी बात नहीं हैं. हर साल किसी ना किसी रूप में बाढ आती ही हैं. इस बार बाढ की विभीषिका ज्यादा थी, इस कारण से समाचार चैनलों की सुर्खियाँ भी बनी और इस तरफ लोगों का ध्यान भी आकृष्ट हुआ. इतना कुछ होने के बाद भी इस समस्या के स्थायी निराकरण के तरफ किसी का ध्यान ना जा रहा हैं ना जायेगा. समस्या रहेगी, तब ना राजनीति की जा सकती हैं,पैसे बनाये जा सकते हैं.
बाढे हर साल आती रहेगी. जाती रहेगी. राजनीति होती रहेगी. पिसना तो आम जनता को हैं. आँकडों में लोग गिने जाते रहे हैं और यह गिनती हरसाल बदस्तूर जारी रहेगी. भगवान के आसरे ही जनता को इस देश में रहना लिखा हैं तो किया भी क्या जा सकता हैं. जैसे चल रहा हैं देश चलने दिया जायें. यह सोच ही राजनेताओं के स्वास्थ्य के लिये ठीक हैं, इस लिये कुछ नही किया जा रहा हैं सिवाए बयानबाजी के.

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

डॉक्टर जी.आर.सुंदर सर नहीं रहे..

आज सुबह जब एकाएक अखबार पलटा तो "भारतीय विद्या भवन के रजिस्ट्रार एक दुर्घटना में मारे गये" शीर्षक वाली खबर पढकर काफी धक्का लगा भवन में रेडियो एंड टी.वी. जर्नलिज्म कोर्स के दौरान सुंदर सर से भारत की सांस्कृतिक विरासत नामक पेपर पढने का मौका मिला, उन्हीं दौरान उनको जानने का मौका मिला. स्वभाव से शांत, नम्र और मृदुभाषी सुंदर सर ने जब पहली बार भारतीय संस्कृति पर अपना व्याख्यान दिया, तब ही लग गया था कि विषय पर इनकी काफी गहरी पकड हैं, मेरी रुचि इस विषय में होने के कारण मैंने भी पत्र को गंभीरता से लिया और सर से इंडोलॉजी के बारे में जानने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ. कक्षा के दौरान जब किसी बिन्दु को समझाते थे,तो समझाने के दौरान ही वह तथ्य हमेशा के लिये स्मृति में चला जाया करता था. कक्षाएँ काफी कम हुई, इसका दुख उस समय काफी था.
अपनी भारतीय संस्कृति को जो कुछ भी थोडा बहुत जानने का मौका मिला, इसमें सुंदर सर का काफी हाथ था. भारतीय संस्कृति से संबंधित शब्दों की उत्त्पत्ति कैसे हुयी, ये सब काफी अच्छे तरीके से बताते थे. कक्षा के दौरान इतने धीरे से बोलते थे कि हमें सुनने के लिये ज्यादा एकाग्रता की आवश्यकता होती थी. भारतीय संस्कृति के ऐसे ऐसे तथ्यों को जानने का मौका मिला, जिसे हम चाहकर भी नहीं खोज सकते हैं.
अभी हाल में ही भवन के जर्नलिज्म के २००७-०८ बैच के कॉन्वोकेशन समारोह में उनका एक संक्षिप्त भाषण सुनने को मिला, जिसमें उन्होनें पूर्व के एक वक्ता की प्रशंसा करते हुये उसकी इस बात पर जोर दिया किया कि जीवन में तरक्की करने के बाद भी माता-पिता और गुरुजनों को कभी नहीं भूलने की बात कही.
देश के राष्ट्रीय अखबारों के लिये भले ही यह एक तेज गति के वाहन द्वारा की गयी एक दुर्घटना हो, लेकिन यह हमारे लिये एक अपूरणीय क्षति हैं. ऐसे विद्वान सज्जनों का एकाएक जाना काफी खलता हैं. मेरे तरफ से सुंदर सर को एक सच्ची श्रद्धांजलि. उनकी कमी आने वाले समय में नये छात्रों को काफी खलेगी.

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

संसद में भी दिख ही गयी नोटों की गड्डी

विश्व के सबसे बडे प्रजातंत्र भारत के निचले सदन लोकसभा में विश्वास मत के बहस के दौरान होने वाली महत्त्वपूर्ण वोटिंग से दो घंटे पूर्व ही भारतीय जनता पार्टी के मुरैना के सांसद अशोक अर्गल ने लोकसभा के स्पीकर की कुर्सी के नीचे लाख लाख रुपयों की गड्डी बैग से निकाल कर दिखाया, सारे देश ने इसे अपने टेलीविजन चैनलों के माध्यम से पूरे देशवासियों ने देखा. लोकसभा चैनल ने तुरंत ही प्रसारण बंद कर दिया.
इसके तुरंत बाद प्रतिपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने संवाददाताओं को संबोधित करते हुये कहा कि भाजपा के तीन सांसदों - अशोक अर्गल, फग्गन सिह कुलस्ते और अशोक भगोडा को तीन तीन करोड रुपये दिये गये. बाकी पैसे विश्वास मत के बाद दिये जाने थे.
अब तो यह पूरी तरह स्पष्ट हो गया कि सांसदों की खरीद-फरोख्त तो होती हैं, लेकिन पहली बार इस चीज का साक्ष्य वो भी संसद के पटल पर देखने को मिला. इससे बडी शर्म की बात भारतीय लोकतंत्र के लिये क्या हो सकती हैं.
इस तरह भाकपा के महासचिव की बात सही ही साबित हो गयी कि करोडों में सांसद खरीदे जा रहे है.जनता के सामने उनके प्रतिनिधियों का चेहरा अब पूरी तरह से बेनकाब हो गया हैं.
इसमें हिंदी खबरिया चैनलों की भूमिका की भी सराहना करनी होगी,जो कि अशोक अर्गल के लापता होने की खबर दिखा रहे थे.वहाँ कुछ ना कुछ खबर दिख ही गयी.
अब जनता क्या सोच रही है? जनता ही जाने.

बुधवार, 16 जुलाई 2008

सचिन को चाहिये १७२, सरकार को २७२.

देश की वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में सरकार को बचायें रखने के लिये यूपीए को जादुई संख्या २७२ की चिंता सता रही हैं.वही सचिन तेंदुलकर को अपने नाम एक और रिकॉर्ड करने के लिये सिर्फ १७२ रनों की जरूरत हैं,जिससे वे टेस्ट क्रिकेट में सर्वाधिक रन बनाने वाले खिलाडी हो जायेंगे. सचिन को इन रनों की चिंता नही होनी चाहिये,वो तो अच्छा खेलेंगे तो बन ही जायेंगे. लेकिन सरकार को बचायें रखने के लिये काँग्रेस अपने सहयोगियों के अलावा ऐसे छोटे-छोटे दलों और इक्का-दुक्का सीट वाले के सामने भी परमाणु समझौते के फायदे सुनाकर अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रही हैं.
समाचार चैनलों पर दोनों संख्या पर कार्यक्रमों का प्रसारण लगातार जारी हैं. कभी कभी १७२ और २७२ देखकर दुविधा में पड जाता हूँ. कभी टी.वी. स्क्रीन के नीचे वाले हिस्से पर नजर आ जाता हैं सिर्फ १७२ की जरुरत. सोचता हूँ सरकार को बचाएँ रखने के लिये सिर्फ १७२ चाहिये. लेकिन बाद में नजर आता हैं ये तो सचिन के रिकॉर्ड के लिये रनों की जरूरत हैं. अगर सचिन को २७२ रन भी बनाने होते,तो वो आसानी से बना सकता हैं.
सरकार रहेगी या जायेगी - इसका फैसला २२ जुलाई को हो जायेगा. वाम दलों ने सरकार को गिराने के लिये कमर कस ली हैं. विपक्ष तो कितने दिनों से इसके लिये तैयार हैं. फिर भी दोनों एक साथ वोट करने के पक्ष में नहीं दिखायी देते हैं. छोटे- छोटे दलों की चाँदी हैं इन दिनों. भाकपा महासचिव ए.बी.बर्धन की अगर माने तो एक एक सांसद की बोली २५-२५ करोड रुपये लगायी जा रही हैं. ऐसे में तो सरकार के गिरने का सवाल ही नहीं उठता हैं.लेकिन सचिन का भाव दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा हैं. पेप्सी ने सचिन के साथ अपना अनुबंध बढाया नही.लेकिन सचिन रनों का पहाड खडा करेगा.
सरकार ने अगर सदन में बहुमत साबित कर लिया तो अपना कार्यकाल पूरा कर लेगी. वैसे ही अगर सचिन ने पूर्व की भाँति लंका में रनों का अंबार खडा किया तो २०११ का विश्व कप खेलने के सपने को जीवित बनायें रखेंगे.दोनों स्थितियाँ संभव सी जान दिखायी पडती हैं.

सोमवार, 23 जून 2008

आखिर कब तक मनाते रहेंगे ८३ की जीत का जश्न

२५ जून २०३३. भारतीय क्रिकेट टीम को क्रिकेट का विश्व कप जीते पचास साल हो गया,इस अवसर पर फिफ्टी-५० वाली टीम को एक बार फिर से नयी दिल्ली में सम्मानित किया गया. बडी विडंबना हैं कि भारतीय टीम ने पिछले पचास साल में पचास ओवर के प्रारूप में एक ही बार विश्व कप जीता. साथ ही साथ पिछले साल धोनी की टीम का भी ट्वेंटी-२० के पच्चीस साल पूरे होने पर भी टीम के हर सदस्य को पच्चीस पच्चीस करोड रुपये दिये गये. बडे गर्व की बात हैं कि इन्हीं दो जीतों को अभी तक हम सेलेब्रेट करते नजर आ रहे हैं.आखिर कब तक ऐसा होता रहेगा?

मंगलवार, 10 जून 2008

सचिन ने संन्यास लिया!

दुनिया के जाने माने क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर ने क्रिकेट से संन्यास ले लिया. ये अपने आप में एक बडी खबर हैं.ये खबर ब्रेक की हमारे मीडिया में ही काम करने वाले एक मित्र ने. मुझे सुनकर अचंभा हुआ,मुझे तो इसकी खबर भी नहीं लगी.ऐसी खबर जिसके ऊपर समाचार चैनलों का एक दिन तो आसानी से बीत जायेगा. अखबारों में दो-तीन पेज तो आसानी से दिये जा सकते हैं. हुआ यूँ कि ये खबर उस मित्र ने सपने में देखा था.ये जानकर मेरे जान में जान आयी.
सचिन के संन्यास पर ना जाने कितने जानकारों ने अपनी टिप्पणी देने में कोई कोताही नहीं की वाकई पूछा जायें तो सचिन कब संन्यास लेंगे ये तो सचिन भी नहीं जानते हैं. अभी लीग के मुकाबले में चोटिल होने के कारण बाद के ही कुछ मैच खेल पायें. बांग्लादेश दौरे से भी नाम वापस ले लिया. ऐसी स्थिति में भी सचिन पर ऊँगली नहीं उठायी जायेगी. अब कुछ खास सीरीज में ही खेलते खेलते विश्व कप २०११ खेलने की ही मंशा सचिन की दिखायी देती हैं.
सबसे ज्यादा विश्व कप खेलने का रिकॉर्ड जो कि जावेद मियाँदाद के नाम हैं,उन्होंने भी यह रिकॉर्ड कैसे बनाया था-ये किसी से छिपा नही हैं. क्या सचिन भी उसी तरीके से यह रिकॉर्ड अपने नाम पर करना चाहते हैं.सचिन मैदान पर खेलते नजर आयें-ये सभी चाहते हैं,लेकिन उनका भी बल्ला टाँगने का समय आयेगा ही.उस समय यह देखना ज्यादा रोचक होगा कि सचिन ने जब क्रिकेट को अलविदा कहा तो उनके ना कितने रिकॉर्ड हैं,और कितने उनमें से कभी नहीं टूटने वाले हैं. शायद मित्र महोदय ने यह सपना नहीं देखा.चलिये अच्छा ही हैं.

आज के घरेलू नौकर घरेलू कैसे?

फिल्म 'आनंद' के रामू काका को हम घरेलू नौकर की श्रेणी में रखे तो कुछ बात समझ में आती हैं,लेकिन आज के नौकरों को किस श्रेणी में रखे,जिनकी नजर में घर के कीमती सामान ही सबकुछ होता हैं. इसके लिये वे अपने मालिक की भी हत्या करने में तनिक भी संकोच नहीं करते हैं. आए दिन खबरों में नौकरों के द्वारा मालिकों की हत्या की घटनाएँ इतनी आम हो गयी हैं,फिर भी लोग इससे सबक नहीं लेते हैं.
पहले परिवारों में रहने वाले नौकरों के साथ नौकर जैसा व्यवहार ना कर परिवार के आम सदस्य जैसा व्यवहार किया जाता था. सच मायने में हम उन्हें घरेलू नौकर कह सकते थे.पर्व हो या त्योहार, परिवार के सदस्यों की ही तरह उनके लिये भी नये कपडे सिलवाना,उनकी हर जरूरतों का खयाल रखना-ये सब शामिल था. अगर सेवक बुजुर्ग हुये तो उन्हें काका की भाँति सम्मान देना साथ ही साथ उनकी राय को भी सुना जाता था.जिस घर में काम करते उसी घर में सारी जिंदगी बीता देना,कभी ऊँची आवाज में बात ना करना. लेकिन अब ये सब चीजें कहाँ देखने को मिलती हैं.
महानगरों की दौडती भागती जिंदगी में अपने काम के लिये समय ना निकाल पाने की स्थिति में नौकरों पर निर्भरता जरूरी जान पडती हैं. ऐसे में घरेलू नौकर रखे जाते हैं,जिसे की विभिन्न प्लेसमेंट एजेंसियाँ मुहैया करवाती हैं. समय समय पर पुलिस के द्वारा हिदायत देने के बाद भी वेरिफिकेशन का काम पूरा ना होने के बाद भी लोग इन नौकरों को अपने यहां काम पर रख लेते हैं और नतीजा एक सप्ताह से लेकर एक महीने के बीच में ही देखने को मिल जाता हैं.
बुजुर्ग लोग इन नये जमाने के नौकरों का सबसे आसान निशाना बनते हैं.सबसे ज्यादा खबरें बुजुर्गों की हत्या से संबंधित ही आती हैं.एकल परिवार की संकल्पना भी इसमें अहम भूमिका निभाती हैं. महानगरों में माता-पिता से अलग रहने का क्रेज बढता जा रहा हैं,जीवन की संध्या बेला में भी नौकरों के भरोसे रहना पड तो ऐसे औलाद किस काम के.
घरों में नौकर रखने की जरूरत ना पडे,इसका सबसे आसान उपाय हैं कि अपने सब काम स्वयं ही किये जायें.भले ही कम काम हो,लेकिन इससे दूसरे पर निर्भरता तो नहीं रहेगी.धीरे धीरे कर अपने सब काम कर लेने से सेहत भी बनी रहेगी. साथ ही फालतू काम भी नहीं करने पडेंगे.अगर अपने से नहीं संभव हैं तो स्वयं अपने घर में यमराज को आमंत्रण दीजिये,ना जाने कब आपके छोटे-मोटे काम को करते हुये आपका ही काम तमाम कर दें.

गुरुवार, 5 जून 2008

एक नया आतंकवाद : आर्थिक आतंकवाद

पेट्रोल,डीजल और कुकिंग गैस के दामों में बढोत्तरी होने के साथ ही एक नये टर्म से भी पाला पडा,वो हैं भाजपा के द्वारा दिया गया 'आर्थिक आतंकवाद'.ना जाने इस टर्म का क्या अभिप्राय हैं? समझने की कोशिश चल रही हैं.इसका अर्थ कोई अर्थशास्त्री बतायेंगे या रक्षा-विशेषज्ञ खोज जारी हैं. वैसे कच्चे तेल की बढती कीमतों को देखते हुये ऐसा करना जरूरी था,आखिर कब तक सरकारें सब्सिडी देती रहेगी. ऐसी स्थिति में किसी भी पार्टी की सरकार रहती तो तेल की कीमतों को बढाती ही.चुनावी साल में जब काँग्रेस को सहयोगियों और विपक्षी दलों के विरोध के बाद भी तेल की कीमतों को बढाना पडा,तो किसानों को जो कर्ज माफी दी गयी या लोकलुभावन बजट पेश किया गया सब पर पानी फिर गया.

भाजपा इस मुद्दे को अच्छी तरीके से भुनाने की कोशिश करेगी,बैठे-बैठाये एक मुद्दा जो मिल गया.आगामी आम चुनाव को देखते हुये काँग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार भी काफी दिनों से तेल की कीमतों को टालती आ रही थी,लेकिन जब सार्वजनिक तेल कंपनियों ने दो-तीन महीने के भीतर कैश ना होने की स्थिति में कच्चे तेल ना खरीद पाने की असमर्थता जाहिर की,तब जाकर सरकार ने मजबूरी में यह फैसला लिया. वाम मोर्चा से ऐसी स्थिति में ना विरोध करते बन पा रहा हैं ना समर्थन करते.

तीन,पाँच और पचास के अनुपात में भाजपा को अपनी लोकसभा की सीटें बढती हुयी नजर आ रही हैं. इधर प्रधानमंत्री को राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन पर आकर यह सफाई देनी पड रही कि किस स्थिति में हमें यह कदम उठाना पडा, इसकी कोई जरूरत नहीं थी. वाम मोर्चा भी इस मुद्दे से फायदा उठाना चाह रहा हैं,लेकिन सरकार के साथ रहकर.
अंततः तेल व गैस की कीमतें बढ गयी हैं.इस सच्चाई से हम सब वाकिफ हैं,कुछ दिनों में ही इसका असर हमारे रोजमर्रा की जिंदगी पर दिखने लगेगा.नेता राजनीति करते रहेंगे,अपनी जेबें भरते रहेंगे.महँगाई दर डबल-डिजीट को छुएँ, महँगाई के कारण जनता का बुरा हाल हो-इन सब चीजों से कोई मतलब नहीं हैं.नये जुमले उछाले जायेंगे और हम आम जनता उसी में माथा-पच्ची करते रह जायेंगे.

शनिवार, 24 मई 2008

कितने अजीब रिश्ते हैं यहाँ पे....

एक छोटे शहर से महानगरों की ओर आने वाले युवा अपने आँखों में ना जाने कितने सपने लेकर आते हैं.कुछ अलग करने की चाहत. भीड का हिस्सा ना बने रह जाये,इसके लिये कोई भी रास्ता अख्तियार करने के लिये तैयार. हर कीमत पर सफलता पाना ही उनका एकमात्र मकसद होता हैं.इसके लिये अपने साथियों का साथ मिले तो ठीक,नहीं तो ऐसे साथी की तलाश शुरू कर देते हैं जो कि उनके सपने को साकार करने में मदद करें.बस यही से शुरू होती हैं प्रोफेशनल रिश्तों की शुरूआत. सफलता मिली,पुराने साथी छुटे और नये प्रोफेशनल दोस्तों की तलाश जो कि इस सफलता को बनाये रखें.

कभी कभी पुराने साथी से छुटकारा पाना इतना आसान नहीं होता हैं,तो उस से मुक्ति पाने के लिये कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं.मीडिया में महानगरों की खबरों की अधिकता होने के कारण हर क्राइम की स्टोरी किसी ना किसी तरह जगह पा ही जाती हैं. पिछले कुछ दिनों की घटनाओं को देखे तो हम पाते हैं कि किस तरह खून के रिश्ते हो या महानगरों में बनने वाले नये नये रिश्ते हो, सभी में खून ही बाहर निकलता हुआ नजर आता हैं.

देश से बाहर भी विदेशों में जाकर पढने वाले भारतीय छात्रों पर होने वाले हमले भी इसी तरफ इशारा करते हैं. घर से हजारों मील दूर अपने सपनों को साकार करने के लिये जाने वालों का ऐसा हस्र निश्चय ही चिंताजनक हैं.कहने को तो पूरा संसार एक "ग्लोबल विलेज" हो गया हैं. लेकिन क्या यहाँ अपने गाँवों में दिखने वाला अपनापन दिखायी देता हैं? कतई नहीं. सूचना तकनीक से सिर्फ जुडना ही हमारे लिये पर्याप्त नहीं हैं एक गाँव की अवधारणा के लिये.यही हाल हमारे महानगरों का भी होता जा रहा हैं.

महानगरों में बनने वाले दोस्ती के रिश्ते भी अजीब होते जा रहे हैं. जब तक साथ पढ रहे हैं या काम कर रहे हैं तब तक रिश्तों में गरमाहट बनी रहती हैं,लेकिन ज्यों ही अपने कैरियर की सीढी चढने लगे तो तो ये रिश्ते बेमानी होने लगते हैं. तब यहाँ दोस्ती को निभाने का जिम्मा सोशल नेटवर्किंग साइट के जरिये होता हैं. अब तो दोस्तों से वर्चुअल वर्ल्ड में ही मिलना अच्छा लगता हैं.यही दोस्ती निभाने का नया रूप हैं,नया ढंग हैं. ना अब वह गरमाहट रही, ना ही वह अपनापन. तो कैसे निभेंगे ये रिश्ते.सोचने की बात हैं.

शुक्रवार, 16 मई 2008

ये वर्चस्व की लडाई हैं.....

एक जंग शुरू हो चुकी हैं सितारों के बीच, ज्यादा से ज्यादा चमकने की. अपनी चमक से दूसरे सितारे की चमक को फीकी करने की. इसके लिये उन्हें किसी भी हद तक क्यों ना जाना पडे. पहले यह काम मीडिया खुद-ब-खुद कर दिया करता था.लेकिन अब "न्यू मीडिया" का सहारा लेकर ये सितारे खुद ही अपने चमक को दूसरे की चमक से ज्यादा बता रहे हैं. जी हाँ, बात हो रही हैं आमिर खान के ब्लॉग की,जिसमें उन्होनें पंचगनी में छुट्टी बीताने के बारे में लिखा. इसमें बात ही बात में एक कुत्ते का भी जिक्र आ गया.जो कि पालतू होने के कारण आमिर के तलवे चाटता हैं और साथ ही साथ उनका ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश भी करता हैं.
अगर इतना ही जिक्र हुआ होता तो किसी का ध्यान इस तरफ जाता भी नहीं,और ना ही यह खबर बनती. सब गडबडी नाम को लेकर हो गयी. कुत्ते का नाम के कारण ही सब पंगा हो गया. कुत्ते का नाम शाहरूख रखा गया था उस कुत्ते के पूर्ववर्ती मालिक के द्वारा. इस ब्लॉग को आमिर ने बैड टेस्ट में लिखा हैं.यह बात तो स्पष्ट रूप से दिखती हैं. साथ ही साथ इस पर लिखे गये कमेंट से प्रशंसकों के गुस्से को भी साफ साफ देखा जा सकता हैं.
आमिर और शाहरूख की यह प्रतिद्वंदिता पिछले कुछ दिनों से काफी सुर्खियां भी बटोर रही हैं.हर बार निशाना दागने का काम आमिर ने ही किया हैं. लेकिन बडी संजीदगी के साथ शाहरूख हर बार दोस्तों के बीच ऐसी बात होती रहती हैं कह कर टाल जाते हैं. इस बार भी नाम पर कॉपीराइट ना होने का हवाला देते हुये बात को टाल गये.
इसी तरह अपने विरोधियों को जवाब देने के लिये भी सदी के महानायक अमिताभ बच्चन भी ब्लॉगिए हो गये हैं. जिस छवि के कारण उन्होनें अपने को इस फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित किया , वही छवि फिर से बनाते हुये अपनी चमक को कम नहीं होना देना चाहते. एक तरह से उन्हें जिस बात का डर सबसे ज्यादा सताता हैं वह हैं - ना पहचाने जाने का डर. यह चीज बडे सितारों में जल्दी से घर भी कर जाती हैं.
एक तरह से यह लडाई हैं अपने को दूसरे से ऊँचा दिखाने की,दूसरे को पूरी तरह से खारिज करने की. ये सितारे कहीं ना कहीं यह भूल जाते हैं कि इनको आसमान पर बैठाने का काम दर्शकों ने किया हैं ना कि ये अपने से इतने बडे सितारे बन गये. अमिताभ हो, आमिर हो या शाहरूख हो, सभी दर्शकों के कारण ही उस मुकाम पर हैं,जिस पर होने का सपना हर कोई देखा करता हैं. ये सितारे एक दूसरे को खारिज करने के चक्कर में दर्शकों की नजर में अपने को खारिज कर रहे हैं. दर्शकों का क्या हैं वो नये सितारे खोज लेंगे.

पल भर में बदलते नायक,इसमें एक हरभजन भी.

थप्पड मामले में हरभजन सिंह को मिली सजा उनके लिये सबक हैं.सबसे पहले तो आई.पी.एल.लीग के दस मैचों में नहीं खेलने का प्रतिबंध लगा, इससे जो आर्थिक नुकसान हुआ, उसके बारे में यह कहा गया कि उनके द्वारा श्रीसंथ को मारा गया तमाचा तीन करोड रुपये का नुकसान दे गया,बदनामी हुयी सो अलग. अब बी.सी.सी.आई. ने पाँच एकदिवसीय अंतर्राष्ट्रीय मैच ना खेलने की पाबंदी लगायी.साथ ही साथ यह भी चेतावनी दी गयी अगर भविष्य में अगर इस तरह का कोई मामला आया तो आजीवन प्रतिबध लगा दिया जायेगा.
ऑस्ट्रेलिया दौरे के बाद हरभजन सिंह को भारतीय मीडिया ने हाथोंहाथ लिया और इसी दौरान एक चैनल पर इंटरव्यू के दौरान फिर ऑस्ट्रेलियाई खिलाडियों पर भडास निकाली,तब क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया द्वारा बी.सी.सी.आई. को इस बारे में कदम उठाने के लिये कहा ,तो एक बार फिर से हरभजन को मीडिया में कुछ ना बोलने की सलाह देकर छोड दिया गया.लेकिन इस बार मामला किसी दो देशों के बीच ना होकर बी.सी.सी. आई. के सबसे बडे खेल तमाशे आई.पी.एल. लीग के दौरान सामने आया,इसलिये सर्वेसर्वा के रूप में बोर्ड को ही फैसला लेना था.क्या होता जब यह थप्पड भारतीय खिलाडी के बजाए किसी विदेशी खिलाडी को लगा होता? ऐसे में बोर्ड का क्या रूख रहता देखने वाला होता. वैसे शेन वार्न का गांगुली के खिलाफ बोलना ज्यादा बडा मसला नहीं बना.
नस्लवाद के नायक के रूप में उभरे हरभजन पर आनन-फानन में भारतीय डाक विभाग ने डाक टिकट भी जारी करने की घोषणा कर दी. क्या इतना आसान हैं भारतीय डाक टिकट पर आ जाना. डाक टिकट किसी देश की सभ्यता संस्कृति का परिचायक होती हैं.इन पर छपने वाले व्यक्तित्व अपने क्षेत्र में बडी सफलता हासिल किय होते हैं. ये उस देश के प्रतिनिधि के रूप में देखे जाते हैं. इतनी जल्दी ही हरभजन नायक से खलनायक हो जायेंगे,किसी ने सोचा भी नही था.लेकिन डाक विभाग मीडिया द्वारा बनाये गये नये ऑयकनों के पीछे भागने के बजाए अपने सोच समझ से निर्णय ले तो ज्यादा अच्छा होगा.
इसी तरह अमेरिका की प्रतिष्ठित टाइम मैगजीन ने भी आनन फानन में पटना के तत्कालीन जिलाधिकारी गौतम गोस्वामी को एशियन हीरो घोषित तो किया था, लेकिन जैसे ही बाढ राहत घोटाले में नाम आया,तो उसके संवाददाता को अपने इस निर्णय पर जवाब देते नहीं सूझ रहा था. आपका नायक जब खलनायक निकल जाता हैं तो सबसे ज्यादा दुख आप ही को होता हैं. इसलिये कोई भी निर्णय लेने से पहले उस पर सोचा जाता हैं.खली की भी भारत लौटने के बाद हरभजन से मिलने की बडी इच्छा थी,लेकिन "स्लैपगेट" के बाद खली को भी हरभजन से मिलना सही नही लगा.
अब हरभजन का यह बयान आना कि उसके जिंदगी के दो मनहूस दिनों में एक थप्पड वाला दिन था,तो अब यह बात समझ में आ रही हैं कि कितनी बडी गलती हो गयी. इतनी भी समझ आने के बाद भविष्य में अपने कंडक्ट को सही रखे तो ज्यादा अच्छा होगा.

शनिवार, 10 मई 2008

अर्जुन के तीर

मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने जब से राहुल गाँधी में प्रधानमंत्री बनने की योग्यता देखी,तब से ही "चापलूसी और वफादारी" की डिबेट शुरू हो गयी.इसके बाद काँग्रेस के कुछ और नेताओं ने राहुल को प्रधानमंत्री के रूप में देखने को उचित ठहराया.इस बीच प्रवक्ताओं ने भी अपना काम भली भाँति किया,अर्जुन सिंह जैसे कद्दावर नेता के विजन को सिक्फैंसी की संज्ञा दे दी.किसी सिक मानसिकता वाले ने ऐसा बयान दे दिया,नहीं तो सब कुछ तो योजना अनुरूप चल रहा था.राहुल गाँधी ने भी अपने को युवराज कहने को प्रजातांत्रिक मूल्यों के खिलाफ बतलाया.मीडिया हैं कि मानता ही नहीं,गाहे बगाहे जो आदत पड गयी हैं,वह सामने प्रकट हो ही जाता हैं.कुल मिलाकर पिछले कुछ महीनों की काँग्रेसी खींचतान को देखे तो पाते हैं कि इतिहास में जिस तरह एक वंश में उत्तराधिकारी के नाबालिग होने या अन्य किसी कारणों से केयरटेकर की व्यवस्था कर ली जाती थी,उसी प्रकार की परंपरा को निर्वाह करने के लिये सभी काँग्रेसी दिग्गज उतावले नजर आते हैं.इसी तरह कल फिर से अर्जुन सिंह का यह बयान आना कि पार्टी में अब वफादारी के मूल्यांकन का दायरा काफी सीमित हो गया हैं.यानि कि अब पार्टी में वफादारों की बात सुनी नहीं जा रही हैं और पार्टी चापलूसों से ज्यादा भर गयी हैं,अब उनकी ही ज्यादा चलती हैं.काँग्रेस ने भी उनकी इस टिप्पणी से असहमति जतायी कि निर्णय प्रक्रिया पर सवाल उठाया हैं।
ज्यों ज्यों आम चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं , वफादार काँग्रेसी नेताओं की छटपटाहट बढती जा रही हैं कि किस तरीके से अपनी वफादारी ज्यादा से ज्यादा दिखाये जाये.चापलूसों का अपना दर्द हैं. सत्ता में उन्हें भी तो अपनी भागीदारी चाहिये.आम जनता की बात करने वाली पार्टी किस तरह कुछ खास जनता या परिवार तक सीमित हैं यह बात तो हर कोई जानता हैं.चापलूस भी भली-भांति जानते हैं.तो क्यूँ ना फायदा उठाया जायें. आम जनता का हाथ बस हाथ के साथ में होना चाहिये.अर्जुन के तीर अभी निशाने पर नहीं लग रहे हैं,तो तिलमिलाना जरूरी हैं.पहले तो तीर निशाने पर लगते थे तब तो पार्टी में प्रजातंत्र भी था और वफादारों का सही मूल्यांकन भी होता था.लेकिन अब पार्टी की कार्यशैली भी अच्छी नहीं लग रही हैं. अब तो उन्हें समझ लेना चाहिये कि पार्टी जब युवा नेतृत्व चाह रही हैं,तो टीम भी युवा ही होगी.

शुक्रवार, 9 मई 2008

जरा सोचिए... क्यूँ जरूरत पडी फिर से सोचने की

हकीकत जैसी, खबर वैसी का राग को छोडते हुये अब जी न्यूज ने सोचने के लिये मजबूर कर दिया,इसको लेकर अब एक नये पंचलाइन "जरा सोचिए" के साथ अपने समाचार चैनल को फिर से नये कलेवर,नये तेवर के साथ प्रस्तुत करने का काम कल रात नौ छप्पन से शुरू हुआ. सूत्रधार के रूप में हिन्दी टी.वी. पत्रकारिता के आज के छात्रों के सबसे बडे ऑयकन पुण्य प्रसून वाजपेयी अवतरित हुये.कार्यक्रम में कन्नूर की घटना को लेते हुये "वोट का अग्निपथ" नामक खबर को बडी खबर बनाया गया.
बात हो रही थी समाचारों की. समाचार चैनलों पर आज के दिन समाचार नहीं दिखाया जा रहा हैं,ऐसी स्थिति में एकबार फिर से जी न्यूज ने समाचार को इस तरह से दिखाने का फैसला किया हैं ,जो कि आम जनता को सोचने पर मजबूर कर देगी.ऐसी उदघोषणा के साथ जी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा ने अपने समाचार चैनल को नये कलेवर में पेश किया. कम से कम किसी खबरिया चैनल का मालिक यह तो दर्शकों को आकर कहता हैं कि आज समाचार नहीं दिखाया जा रहा हैं. इससे पहले टाइम्स नाउ के एक कार्यक्रम में भी कहा था.
हिन्दी खबरिया चैनलों को फिर से खबर तो दिखाना शुरू करना ही हैं,कब तक मनोरंजन करवाते रहेंगे.इस सिलसिले में दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह बयान देना कि मीडिया को देश को एक नयी सोच देने में मदद करनी चाहिये ,काफी महत्त्वपूर्ण हैं. आज मीडिया के पास खबरें हैं,ऐसे पत्रकार भी हैं जो कि ऐसी खबरे भी दिखा सकते हैं जो कि आम जनता को सोचने पर मजबूर भी कर सकते हैं,लेकिन रेवेन्यू खोने का डर इतना समाया रहता हैं कि खबरों के साथ न्याय करना भूल गये हैं.
अँग्रेजी चैनलों को तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा का सामना करना पडता हैं,इसलिये वे खली और बजरंगबली पर अपने प्राइम टाइम को बर्बाद नही कर सकते हैं. हिन्दी खबरिया चैनलों को भी मन्नु और रंजन के बाप के पीछे नहीं पडकर ठोस खबरों के पीछे पडना चाहिये.कुछ ऐसा विश्लेषण करना चाहिये कि लोगों में एक नयी सोच विकसित हो सके.
जी ने पहल की हैं, देखिये कब तक बाकी चैनल ऐसा करते हैं.वैसे बडी खबर में कन्नूर की घटना पर जितनी निष्पक्षता से कार्यक्रम रखा गया,वाकई प्रयास सराहनीय था.हम भी आने वाले समय में ऐसे ही परिवर्त्तन के वाहक बने.बस इसके लिये सोचने की जरूरत हैं.

शनिवार, 5 अप्रैल 2008

पानी को लेकर ही होगा तीसरा महायुद्ध

किसी ने सही ही कहा हैं कि तीसरा महायुद्ध पानी को लेकर ही होगा.इससे पहले के महायुद्ध भले ही जमीन को लेकर हुये हैं,लेकिन हाल कि बनती हुयी परिस्थिति में हम देख सकते हैं कि जब अपने देश के भीतर ही पानी को लेकर दो राज्यों के बीच कानून और व्यवस्था की स्थिति इतनी बिगड जाती हैं,तब अगर यह स्थिति किन्हीं दो देशों के बीच पैदा हो तो स्थिति की भयावहता की अभी तो कल्पना मात्र ही की जा सकती हैं.

अभी हाल में ही कर्नाटक और तमिलनाडु एकबार फिर से कावेरी नदी के पानी बँटवारे को लेकर एक दूसरे के सामने खडे हैं.बात हो रही हैं होगेनक्कल परियोजना की. कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमा पर कावेरी नदी होगेनक्कल नामक स्थान पर तमिलनाडु में प्रवेश करती हैं.वहाँ पर तमिलनाडु की सरकार ने पीने के पानी के लिये एक जल-संग्रह की परियोजना पर काम कर रही जिससे कि सूखे से प्रभावित धर्मपुरी और कृष्णागिरी जिले को पानी मुहैया कराया जा सकेगा.१९९८ पर दोनों राज्यों के बीच इस मुद्दे पर सहमति बन गयी थी. कर्नाटक को भी बेंगलूरू के लिये इससे पानी मिलना तय हुआ था.


लेकिन कर्नाटक में चुनाव की सरगर्मी को देखते हुये यह मुद्दा एकाएक नेताओं के हाथ लग गया जिससे कि सभी राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकना चाहते हैं.इस सिलसिले में शिपिंग मिनिस्टर टी.आर.बालू और कर्नाटक के काँग्रेसी नेता एस.एम.कृष्णा का प्रधानमंत्री से मिलना हुआ.लेकिन आज ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. करूणानिधि ने इस परियोजना पर कर्नाटक में चुनाव होने तक रोक लगाकर इसे राजनीतिक मुद्दा बनने से रोकने की कोशिश की हैं.

पिछले तीन चार दिनों से बेंगलूरू और चेन्नई में एक-दूसरे के राज्यों के लोगों के खिलाफ हिंसा का दौर जारी हैं जिसके कारण कर्नाटक में तमिल मीडिया और तमिलनाडु में कन्नड मीडिया चैनलों को बंद करने की भी धमकी दी गयी.कर्नाटक में एक छोटे से राजनीतिक समूह कर्नाटक रक्षा वेदिके ने राज ठाकरे की नीति पर चलते हुये इस मुद्दे पर जगह जगह प्रदर्शन किये.

हद तो तब हो गयी जब दोनों राज्यों के फिल्म कलाकारों ने इस मसले पर अपना विरोध अपने अपने राज्यों में एकजुट होकर अपने तरीके से दर्ज कराया.वैसे भी दक्षिण भारत में फिल्मी कलाकारों को भगवान से कम नहीं माना जाता हैं.इसी में जब दक्षिण के सुपरस्टार रजनीकांत ने अपने जन्मभूमि के बदले कर्मभूमि के समर्थन में आवाज उठायी तो मुंबई में शिवसेना ने अमिताभ को रजनीकांत के सामने बौना साबित कर दिया.

फिलहाल इस मुद्दे पर कर्नाटक चुनाव तक शांति बनी रहेगी,लेकिन जल विवाद का यह मामला इतनी आसानी से दम तोडने वाला नहीं.भले ही ग्लोबल वार्मिंग के कारण विश्व के समुद्र तटों के कारण बसने वाले शहर जलमग्न होने जा रहे हैं,लेकिन इसी जल के कारण विश्वयुद्ध होने जा रहा हैं- ऐसी स्थिति बनी तो निश्च्य ही यह एक भयावह स्थिति होगी.

गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

भारत ने अहमदाबाद में खेला ट्वेंटी-२०

९६३३०१४२१०१०० जी हाँ, देखने में तो ये कहीं का मोबाइल नंबर लगता हैं,लेकिन ऐसा नही हैं. १३ अंकों की यह संख्या बयान कर रही हैं भारतीय टीम के धुरंधर बल्लेबाजों की क्रम से बनायी गयी रन संख्या को. जिसमें बीच के १४ और २१ क्रमशः धोनी और पठान ने बनाये हैं, बाकी बल्लेबाज दहाई का भी आँकडा पार करने में सफल नही हुये.भारत ने भी पूरे बीस ओवर खेल कर ७६ रन बनाकर दिखा दिया कि अब भी हम ट्वेंटी-२० के ही मोड में हैं.चाहे विपक्षी टीम टेस्ट खेलने के मूड में क्यों न हो.

चेन्नै टेस्ट में विकेट इतनी सपाट थी कि दोनों टीम के खिलाडियों ने जमकर रनों का अंबार लगाया. गेंदबाजों ने जमकर पिच को कोसा.अब मोटेरा में ऐसी विकेट बन गयी कि भारतीय खिलाडियों को यहाँ सीम करती हुयी गेंद ही नजर ही नहीं आयी. टॉस जीतकर बल्लेबाजी लेना एक सही निर्णय हो सकता था लेकिन बल्लेबाजों ने पहले ही दिन मैच गंवा दिया. लंच से पहले ही टीम के सभी बल्लेबाजों ने पिछले मैच के सैकडों की याद को भूलाते हुये टीम का भी सैंकडा नही बनने दिया.


हमारे गेंदबाज अब उसी विकेट पर निस्तेज साबित हो रहे हैं.पहली पारी के आधार पर दक्षिण अफ्रीका एक बडी बढत की ओर अग्रसर हो रही हैं. अब इस टेस्ट में तो भारत के हाथ जीत लगने से रही.इसका एक कारण साफ हैं इस टेस्ट से पहले भारत की टीम जहाँ एड कैम्पेन में लगी रही वही अफ्रीकी टीम ने जमकर पसीना बहाया.इसकी साफ झलक इस टेस्ट मैच के दौरान देखने को मिल रही हैं.

एक प्रदर्शन पर फूल कर कुप्प्पा हो जाने की आदत टीम इंडिया की अभी तक गयी नहीं हैं. इसका खामियाजा दूसरे मैच में देखने को हमेशा मिलता हैं.ऐसी आदत से टीम इंडिया को बचना चाहिये.

शुक्रवार, 28 मार्च 2008

"मुल्तान के सुल्तान" बने चेन्नई के बादशाह

"मुल्तान के सुल्तान" वीरेंद्र सेहवाग ने चेन्नई टेस्ट में दूसरा तिहरा शतक लगाकर बता दिया कि लंबी पारी खेलने की कूव्वत अगर भारतीय टीम में किसी खिलाडी के पास हैं तो वो सिर्फ नजफगढ के वीरू ही हैं. भारतीय सरजमीं पर घरेलू दर्शकों के सामने पहली बार भी तिहरा शतक मारने का कारनामा भी वीरेंद्र सेहवाग के ही नाम गया.सबको इससे पहले एक आस जगायी थी वी.वी.एस. लक्ष्मण ने,लेकिन वे १९ रन से चूक गये थे.

आज की पार को भी सेहवाग ३०९ रनों तक ले गये हैं. टेस्ट इतिहास में दूसरी बार तिहरा शतक मारने वाले तीसरे खिलाडी बनने का सौभाग्य वीरू को प्राप्त हुआ. इससे पहले ये कारनामा सर डॉन ब्रैडमैन और ब्रायन लारा के नाम हैं. लारा के नाम तो टेस्ट क्रिकेट में ४०० रन मारने का अनोखा रिकॉर्ड हैं.इसकी बराबरी करना ही कल वीरू का पहला लक्ष्य होगा.

टीम चयन के बाद सबसे ज्यादा सवाल भारतीय टीम की ओपनिंग जोडी पर उठाये जा रहे थे. कहाँ तो ऑस्ट्रेलिया दौरे के लिये संभावित खिलाडियों की सूची में भी वीरेंद्र सेहवाग का नाम नही था.लेकिन उनके एडिलेड टेस्ट के डेढे शतक के बाद इस सीरिज के लिये लेना तो जरूरी था ही,इसके साथ ही वन-डे टीम के लिये भी अपनी दावेदारी मजबूत कर ली हैं.

सभी खेल प्रेमी कल उनके ४०० रन का इंतजार करेंगे,अगर वे ऐसे ही खेलते रहे तो वो मंजिल भी पाना कोई मुश्किल काम नही होगा. सबसे तेज तिहरे शतक बनाने के बाद लारा के रिकॉर्ड का टूटने का हम इंतजार कर रहे हैं.

गुरुवार, 27 मार्च 2008

हिन्दी खबरिया चैनलों की मानसिक दिवालिएपन की "वंदना"

अब कुछ दिन का और इंतजार ,खबरिया चैनलों के गड्ढे वाले समाचार की अपार सफलता के बाद दूसरे जूली-मटूकनाथ की खोज जारी हैं.सभी चैनल वालों ने अपने रिपोर्टरों को ऐसे ही एक जोडे की खोज के लिये अपने अपने शहर के विश्वविद्यलयों या कोचिंग संस्थानों के लिये भेज दिया हैं. प्रिंस के बाद वंदना के गिरने में समय का जो अंतराल हैं,उसी के अनुसार जूली की खोज जारी हैं. अगर नही मिल रही हैं तो रिपोर्टरों तुम्हारी खैर नही.

कल फिर से समाचार चैनल देखते वक्त उन्हीं परिस्थितियों का सामना करना पडा जो आज से दो साल पहले करना पडा था.सभी चैनल 'वंदना' को बोरवेल से वेल तरीके से निकालने में अपने चैनल की टीम को भेजे हुये थे.कैमरामैन से लेकर रिपोर्टर तक को घूम घूम कर प्रिंस का वाकया याद आ रहा था.क्या उतनी देर ही हमें जूझना पडेगा या कम ही देर में काम हो जायेगा बच्ची को बचाने का. इधर सभी न्यूज चैनलों के न्यूजरूम में बस एक ही बात ..देखो जब वो चैनल इस खबर से खेल रहा हैं तो हम क्यों नहीं. ऐसा करते करते अँग्रेजी के भी समाचार चैनल भी इसी खबर से खेलने में लग गये.

"टाइम्स नाउ" ने तो इस खबर को मीडिया हाइप बताकर कुछ चर्चा भी कर ली.लेकिन बाकी सभी चैनलों ने तो इस घटना का लाइव प्रस्तुतीकरण देना ही बेहत्तर समझा. बीच बीच में कुछ समझदार प्रस्तोता यह सवाल उठा देते कि इतने गहरे गड्ढे को ढँका क्यूँ नही गया. अबे होशियार एंकरों अगर उस बोरवेल का मुँह ढँका रहता तो तुम्हारा मुँह सत्ताइस घंटे के लिये कैसे खुलता.

प्रोड्यूसर से लेकर दूसरे बीट तक के सभी लोग खुश.चलो आज की तो हो गयी छुट्टी.आज के दिन वंदना ने बचा लिया,नही तो कहाँ से कोई कहानी बनकर आती. फिल्मी स्टाइल में पुराने फिल्मों का रीमेक बनने में कई दशक लग जाते हैं.वैसे ही समाचारों का रीमेक बन जायें तो बुरा नहीं हैं.लेकिन समाचार के साथ फिल्मों वाली बात नहीं हैं.समाचारों का उतना असर नहीं होता हैं.

हिन्दी खबरिया चैनल वाले अब कितना भी दर्शकों को बेवकूफ समझ ले लेकिन इस चक्कर में वे स्वयं ही कितनी बुरी तरीके से समाचारों से कटते जा रहे हैं,इसका उन्हें एह्सास तक नही हैं.अब तक सँभलने का काम नही हो रहा हैं,वह दिन दूर नहीं हैं जब समाचार चैनलों को चलाने का लाइसेंस देने वाली सरकार ही जब "कंटेंट कोड" लायेगी तो इसे प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला मान लिया जायेगा.जितनी जल्दी से लाइसेंस मिले है उतनी जल्दी ही ब्लैक आउट होने का खतरा बना रहेगा. पूछना हैं तो "लाइव इंडिया" में काम करने वालो से पूछिए उनकी हालत तब कैसी हो गयी थी जब उमा खुराना स्टिंग के कारण चैनल का भविष्य ही अंधकारमय नजर आने लगा था.

अब भी वक्त हैं दर्शकों को बेवकूफ समझना बंद कर समाचार दिखाना शुरू करें,नही तो दूसरे को बेवकूफ समझते समझते कही बेवकूफी मे किसी दूसरे चैनल पर यह खबर नही चल जायें कि फलाँ चैनल अब "हिस्ट्री" हो गया हैं,क्योंकि उसकी न्यूजों की "डिस्कवरी" नेशनल ज्योग्राफी क्षेत्र में नही थी.

मंगलवार, 25 मार्च 2008

वेतन तो बढा, वे तन की क्षमता को बढायेंगे क्या?

छठे वेतन आयोग की सिफारिशें सब के सामने आ चुकी हैं. कैबिनेट सचिव को तीस हजार के बदले अब नब्बे हजार रूपये वेतन के रूप में मिलेंगे.सबकी आँखे कल से टेलीविजन के बाद आज अखबारों से चिपकी पडी हैं. चालीस से पचास फीसदी की बढोत्तरी बतायी जा रही हैं, लेकिन यहाँ तो सीधे तौर पर देखने पर दो सौ फीसदी की बढोत्तरी देखने को मिल रही हैं. गणना का क्या हिसाब हैं,देश के नीति-निर्माता ही जाने. लेकिन बढोत्तरी को जायज बताया जा रहा हैं.

आज के युवाओं को देश की सरकारी नौकरी की तरफ आकर्षित करने की यह पहल काफी सराहनीय हैं. खासकर सेना में घटती संख्या देश के लिये एक चिंता का विषय थी,इस बार सेना में भी वेतन बढोत्तरी कर इसे भी युवाओं के लिये एक कैरियर ऑप्शन के रूप में देखने के लिये मजबूर करेगा. 'प्रतिभा-पलायन' को भी रोकने के लिये इसे अहम माना जा रहा हैं.प्राइवेट सेक्टर और विदेशों में पैसा के लिये जाने वाले लोग तो अब भी जायेंगे.लेकिन कहीं ना कहीं एक बार फिर से प्राइवेट के ऊपर लोग सरकारी नौकरी को तरजीह जरूर देंगे.

वेतन तो बढा,खूब बढा. लेकिन क्या सरकारी कर्मचारी से क्या हम उस तरह के काम की आशा रख सकते हैं जो कि प्राइवेट सेक्टर के लोग करते हैं. सिर्फ वेतन बढा देने से सरकारी कर्मचारियों की कार्य क्षमता में बढोत्तरी हो जायेगी,ऐसा अभी तो होता हुआ नही प्रतीत होता हैं. इसके लिये सरकार को कडे कायदे कानून लाने पडेंगे तभी जाकर कुछ स्थिति सुधर सकती हैं."हायर और फायर" पॉलिसी के तहत निजी क्षेत्रों में काम को कम समय में और सही तरीके से करने का दवाब बना रहता हैं. ऑउटपुट भी ज्यादा आता हैं. इसे सरकारी क्षेत्र में भी लागू करना होगा तभी जाकर कोई बात बन सकती हैं.

अभी तक जो सरकारी "बडा बाबू" या छोटे से छोटे स्तर का कर्मचारी वेतन कम होने की दुहाई देते हुये चाय-पानी का पैसा लेना अपनी मजबूरी बताता था. क्या वे इस चाय पानी का खर्च अपने वेतन से ही करना पसंद करेंगे के अभी भी वेतन बढने के बाद भी घूसखोरी जैसे परम पावन कर्त्तव्य को जारी रखेंगे.जिसे एक्स्ट्रा आमदनी का नाम देने से नही चूकते हैं.

सरकार ने तो केंद्रीय कर्मचारियों को तो चुनावी साल में होली के अवसर पर काफी बडा तोहफा तो पकडा दिया हैं,लेकिन क्या राज्य सरकार अपने कर्मचारियों का वेतन इस प्रकार बढा पायेगी? अभी तो संभव नही लगता हैं.ऐसा कोई भी कदम उठने से पहले राज्य सरकारों को कई बार सोचना पडेगा.

वेतन बढा.बहुत अच्छी बात हैं.लेकिन कार्य क्षमता भी बढनी चाहिये."सरकारी" शब्द का प्रयोग भी सही अर्थों में नही होता हैं. कोई ना कोई तलवार लटकानी चाहिये तभी जाकर इन सरकारी कर्मचारियों की कार्यक्षमता में बढोत्तरी होगी.अभी भी वे अपने बढे हुये वेतन के अनुपात में कार्यक्षमता बढा दे तो भारत को २०२० तक सर्वशक्तिसंपन्न देश बनने से कोई नही रोक सकता हैं.अगर नही बढाये तो सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट तब तक आ जायेगी और हम तब भी विकासशील राष्ट्रों की श्रेणी से निकलने की जद्दोजहद करते नजर आयेंगे.

शुक्रवार, 21 मार्च 2008

अनहोनी को होनी सिर्फ कर सकता है धोनी

होनी को अनहोनी कर दे,अनहोनी को होनी जब एक जगह जब जमा हो तीनों सचिन,सौरव और द्रविड.(कुछ जमा नही,कोई बात नही. आगे देखते हैं) जी हाँ,ऐसी ही तस्वीर थी पिछले एक दशक से भारतीय क्रिकेट की.इन तीनों रनबाँकुरों पर ही भारतीय टीम को भरोसा था कि अगर इनमें से कोई एक भी चल गया था तो भारत किसी भी परिस्थितियों में मैच जीत सकता हैं. २००७ के विश्व कप तक तो सबकुछ ठीक चला लेकिन टीम इंडिया के लीग मुकाबलों से बाहर होने के साथ साथ यह तस्वीर कुछ धुँधली नजर आने लगी.

इसी बीच धोनी को वन-डे और ट्वेंटी-२० की कप्तानी मिली,दोनों फॉर्मेट में बडी बडी जीतों ने उपरोक्त गाने को सही रूप दे दिया.होनी को अनहोनी कर दे,अनहोनी को होनी जब एक जगह जब जमा हो तीनों- एक सीनियर,बाकी जुनियर और कप्तान धोनी.

हाल में कप्तान के एक बयान को लेकर सारे मीडिया में हल्ला हैं कि उनके कहने पर ही दो सीनियर्स- सौरव और द्रविड को वन-डे टीम से बाहर रखा गया. पूर्व खिलाडियों ने इस बयान की आलोचना की. साथ ही कुछ घंटे पूर्व शरद पवार साहब को यह कहना पडा कि सचिन के कहने पर ही टीम इंडिया की कमान धोनी को सौंपी गयी थी.
अब ऐसी टिप्प्णी से यह कयास लगाये जा रहे हैं कि कही इसी कारण मास्टर ब्लास्टर टीम में तो नही बने हुये हैं.नही तो फाइनल की दो पारियाँ हमें देखने को नही मिलती.

ऐसी बातों का बाहर खुलकर सामने आने से खिलाडियों के बीच चल रही राजनीति तो सामने आती ही है,साथ ही इन सब चीजों का खिलाडियों के मनोबल पर भी बुरा प्रभाव पडता हैं.ऐसी चीजों से खेल और खिलाडियों को बचना चाहिये.

भारत के चीफ मिनिस्टर कौन हैं?

आजकल समाचार चैनलों में डी.डी. न्यूज का समाचार आप ना देखो तो एक केंद्रीय मंत्री के हिसाब से आप गद्दार हैं.अगर देखो तो नित नये नये सामान्य ज्ञान से परिचय होता है."भारत के चीफ मिनिस्टर के.जी. बालाकृष्णन" ऐसा कहते हुये एक न्यूज स्टोरी की शुरूआत अंग्रेजी के एक न्यूज बुलेटिन में किया जाता हैं.वैसे भी डी.डी. न्यूज के न्यूजरूम में यह एक आम धारणा प्रचलित हैं कि हमारा समाचार चैनल देखता ही कौन हैं.इसलिये जो चलता है चला दो.

यह न्यूज स्टोरी १५ मार्च को सुबह साढे आठ बजे वाले बुलेटिन में( समाचार वाचिका थी कोई)चलायी गयी.ऐसे में यह समाचार चैनल अपनी विश्वसनीयता ऐसे ही खोता जा रहा हैं और न्यूजरूम की मानसिकता भी इसमें अहम भूमिका निभा रहा हैं.

इससे ठीक एक दिन पहले डी.डी. के नेशनल चैनल पर डेढ घंटे का एक कार्यक्रम चलाया गया था जिसमें टी.आर.पी. को लेकर मीडिया जगत के दिग्गजों को बुलाकर एक 'हेल्दी' डिस्कशन करवाया गया. जिसमें डी.डी. के ४० प्रतिशत प्रसार की बात ग्रामीण क्षेत्रों में हैं,ऐसा बताकर डी.डी. के टी.आर.पी. के चक्कर में ना पडने की बात उनके प्रतिनिधि ने बतायी थी. तो क्या जिन जगहों पर सिर्फ दूरदर्शन ही समाचार या मनोरंजन का साधन है वहाँ भी इसी तरह की 'चलता है' वाली मानसिकता वाले समाचार के भरोसे रहना होगा.

वैसे जो चल रहा हैं निजी समाचार चैनलों पर वह तो पूरी तरह से मानसिक दिवालिएपन की निशानी है.इसलिये
निजी हो या सरकारी समाचार चैनलों के लिये अब सरकार को कंटेंट कोड बनाना ही पडेगा,जिससे कि हमें वास्तव में समाचार देखने को मिले ना कि 'मेट्रो नाऊ' या इसी तरह के किसी अखबार से उठायी गयी स्टोरी का दृश्यात्मक विवरण देखने को मिले.

बुधवार, 19 मार्च 2008

राष्ट्रीय पशु,पक्षी और खेल सब खतरे में

बचपन में जब हम नन्हे सम्राट पढा करते थे तो बीच के पृष्ठों में मूर्खिस्तान के दो पन्ने जरूर पढा करते थे,जो कि कार्टून की शक्ल में हुआ करता था.वहाँ भी राष्ट्रीय पशु,पक्षी और खेल हुआ करते थे,ये क्रम से बंदर(?),उल्लू और गिल्ली-डंडा थे.राष्ट्रीय बाघ,मोर और हॉकी से ज्यादा ये हमे अपीलिंग लगा करते थे.लेकिन आज के दिन में वो बात नहीं रही. आज मीडिया में ये हमारे राष्ट्रीय धरोहर कुछ ज्यादा ही सुर्खियाँ बटोर रहे हैं.

सबसे पहले बात करे राष्ट्रीय पशु बाघ की. इस पर तो एन.डी.टी.वी. ने तो 'सेव द टाइगर' कैम्पेन चलाकर बाघ को बचाने की मुहिम ही छेड रखी हैं. बाघ की गिरती संख्या वास्तव में ही चिंता का विषय हैं. डेढ हजार से भी कम संख्या में इनकी उपस्थिति आने वाले समय में पारिस्थितिकी तंत्र पर उल्टा असर डाल सकता हैं. सरकार तो उपाय करने में लगी हुयी ही हैं.

कुछ यही हाल हमारे राष्ट्रीय पक्षी मोर का भी हाल हैं. आज ही सुबह एक टी.वी. समाचार के अनुसार बुलंदशहर में एक आदमी ने पचास मोरो को मारकर दफन कर दिया हैं. इसी तरह कुछ दिन पहले भी एक दृश्य में मरे हुये मोरों को बच्चें हाथ में पकडे हुये दिखाये जा रहे थे,यह खबर किसी दूसरे जगह से थी. मोरों या बाघों को मारकर शिकारी लोग उनके पंखों और खाल की तस्करी करते हैं, जो कि सही नहीं हैं. सरकार भी इस दिशा में कोई कदम नहीं उठा रही हैं.

अब बात करे 'अस्सी साल बनाम सत्तर मिनट' खबर की यानि कि सत्तर मिनट में अस्सी साल का गौरव खत्म करने वाले राष्ट्रीय खेल हॉकी के खिलाडियों की.ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम नजर नहीं आयेगी.चलिये वैसे भी वे वहाँ जाकर क्या उखाड लेते, इससे तो बढिया हुआ कि जाकर सिर्फ बीजिंग घूम कर आते और आठवाँ या नौंवा स्थान में ही संतोष करते.सबसे बडी बात तो यह हुयी कि बहुत सारे लोगों ने इस खबर से यह तो जान लिया होगा कि भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी हैं.

पूर्व हॉकी खिलाडी भी फूले नही समा रहे थे कि जब वो खेला करते तो उन्हें कोई जाना नहीं करता था, अब तो उस दिन हर कोई उन्हें टी.वी. पर देख रहा था और पहचानने कि कोशिश कर रहा था.साथ ही सभी खबरिया चैनलों ने इतना सारा समय हॉकी जैसे खेल पर दिया मानो हॉकी की भी स्थिति वैसी ही हुयी जैसे सौ सुनार की और एक लुहार की. जितना समय हम अपने "नेशनल" खेल को देते है,उतना समय कम से कम एक दिन के लिये तो राष्ट्रीय खेल ने भी तो पा ही लिया. इस बात की खुशी भी पूर्व खिलाडियों को थी.

वैसे हॉकी खिलाडियों का भी कोई दोष भी नही हैं, एक हजार की इनाम राशि एक गोल के लिये वो भी पूरे टीम को,यानि कि "आपके जमाने में बाप के इनाम" पर कैसे एक टीम अपने खेल के प्रदर्शन को सुधार सकती हैं, और हॉकी के मठाधीश इसी तर्ज पर सोने के तमगे की उम्मीद लगाये बैठे थे.तो खिलाडियों ने भी घर पर ही सोना उच्त समझा.

गुरुवार, 6 मार्च 2008

हमारे वक्त में 'बहरूप' के बहरूपिये

ये सब कुछ हमारे ही वक्त में होना था
वक्त को रूक जाना था थकी हुयी जंग की तरह
और कच्ची दीवारों पर लटके कैलेंडरों को
प्रधानमंत्री की फोटो बनकर रह जाना था
मेरे यारों हमारे वक्त का एहसास बस इतना ही ना रह जाए
कि हम धीरे धीरे मरने को ही जीना समझ बैठे थे
कि वक्त हमारी घडियों से नही हड्डियों के खुरने से नापा गया
ये गुरूड हमारे ही वक्त का होगा,
ये गुरूड हमारे ही वक्त को होना हैं.

मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में बहरूप ग्रुप की प्रस्तुति 'हमारे वक्त में' प्ले देखने गया, वही इन पंक्तियों से परिचय हुआ. काफी अच्छी लगी इसलिये इसे उधृत कर रहा हूँ.प्ले मीडिया पर था जिसके पहले ही दृश्य में नेपथ्य से राँची के आकाशवाणी केंद्र से पढा गया समाचार अंतिम समाचार था और फिर इन पंक्तियों को भी नेपथ्य से ही कहा गया.
पहले सीन मे इलेक्ट्रोनिक मीडिया की एक पत्रकार ने देश के गृहमंत्री का इंटरव्यू लिया और जाने के क्रम में उनका नाम स्पेलिंग के साथ पूछा. काश ये सिर्फ नाटक में हुआ रहता तो अच्छा था लेकिन सच मे ऐसा हुआ था.

मीडिया के दशा और दिशा पर नाटक ने काफी सटीकता के साथ प्रकाश डाला.शाहिद अनवर साहब की स्क्रिपटिंग और के.एस.राजेंद्रन साहब के निर्देशन में कलाकारों ने काफी अच्छा अभिनय कर नाटक में जान डाल दिया. केके और घावरी का अभिनय लोगों ने ज्यादा पसंद किया.कलाकारों द्वारा एक शब्द के गलत उच्चारण पर दर्शक दीर्घा में एक साहबान की टिप्पणी कि सारे नाटक का सत्यानाश कर डाला - निश्चय ही यह सोचने पर मजबूर करती है कि अब भी आपके द्वारा बोले गये एक एक शब्द की स्क्रूटनी की जाती हैं,ऐसे ही आप गलत बोलकर अपना काम नही चला सकते हैं.

बहरूप से मेरा जुडाव ज्यादा पुराना नहीं हैं. जे.एन.यू. में या मंडी हाउस के किसी ऑडिटोरियम में इस ग्रुप के नाटक को देखने का सिलसिला पिछले एक साल से ही हैं. एक दर्शक के रूप में ही जुडाव हैं.ऊपर लिखी गयी पंक्तियाँ अवतार सिंह साहब की हैं जो पाश नाम से पंजाबी में कवितायें लिखते थे.हमारे वक्त में इन बहरूप के बहरूपियों की यह प्रस्तुति समय के गुरूड को रेखांकित करती हैं जो अच्छा हैं और होना भी चाहिये.

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

नफरतों के फल जायका नहीं देते.

रंज दे कर आखिर क्यूँ मुस्कुरा नही देते
तुम सजा तो देते हो, हौसला नही देते
मौसमों की साजिश से पेड फल तो देते हैं,
नफरतों के फल जायका नहीं देते।


एक शायर ने हाल में ही क्या खूब कहा. देवबंद के दारूल उलूम के द्वारा आतंकवाद को गैर-इस्लामिक घोषित किये जाने के बाद ये शायरी खूब फिट बैठती हैं उन नफरतों के सौदागरों पर जो बेमतलब के अमन और शांति के दुश्मन बने हुये हैं.

शनिवार, 23 फ़रवरी 2008

"तमाशबीन" शब्द का सही अर्थ क्या हैं?

तमाशबीन बनी देखती रही पुलिस
यह स्लग आज दोपहर बारह बजे देश के सबसे तेज कहे जाने वाले समाचार चैनल 'आज तक' पर बिहार के हाजीपुर की घटना के संदर्भ में बार बार दिखाया जा रहा था. पुलिस के सामने एक आरोपी युवक को पीट पीट कर अधमरा करने के फूटेज भी दिखाये जा रहे थे.
बाद में समय चैनल ने भी इसी शीर्षक का उपयोग अपने न्यूज फ्लैश में भी किया.
पुलिस तमाशा तो देखती रही, लेकिन क्या वह वाकई में तमाशबीन थी या तमाशाई? कॉलेज में पढने के क्रम में एक शिक्षक ने तमाशबीन शब्द पर जोर देते हुये कहा था कि इसका अर्थ कोठे पर जाने वाला होता हैं, सही शब्द हैं तमाशाई.
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में इस शब्द का धडल्ले से उपयोग हो रहा हैं. बी.बी.सी. हिन्दी की साइट पर भी इस शब्द का प्रयोग अँग्रेजी के ऑनलुकर या स्पेक्टेटर के रूप में होता हैं.क्या यह इस शब्द का सही अर्थ हैं या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हमारे लिये नई शब्दावली गढ रहा हैं?

गुरुवार, 21 फ़रवरी 2008

धोनी ने फिर मारा "छक्का"

क्रिकेट में छक्का मारने में माहिर भारतीय टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने मंगलवार को श्रीलंका के खिलाफ एक अहम मुकाबले में भले ही एक भी बाउंड्री नही मारी हो,लेकिन आई.पी.एल. लीग के लिये लगने वाली बोली में वे ही एक मात्र खिलाडी थे जिन्हें छह करोड में चेन्नई सुपर किंग टीम ने खरीदा.यानि कि मैदान के बाहर भी छक्का मारने में वे ही सफल हुये.
एक समय था जब मैदान में टीम इंडिया को जीतने के लिये कुछ रनों की आवश्यकता होती थी तब धोनी से दर्शक छक्का मार जिताने की डिमांड करते थे.लेकिन आज समय के अनुरूप खेल में काफी परिवर्त्तन किया और अब एक अच्छे फिनीशर की भूमिका बखूबी निभा रहे हैं.एक चौका भी नही लगा श्रीलंका के खिलाफ मैच जिताना धोनी की जीवटता की निशानी हैं. काफी कम समय में कप्तान के पद पर पहुँचने में उनकी समझदारी ने ही अहम भूमिका निभायी,नही तो युवराज का कप्तान बनना तय माना जा रहा था.
धोनी की ऊँची कीमत मे उसके ब्रांड वैल्यू ने भी बडी भूमिका निभायी.बाजार के इस फॉर्मूले ' जो दिखता हैं वह बिकता हैं'ने भी धोनी की कीमत तय करने में मदद की. पैसे की बरसात के बीच उसके पिता पान सिंह धोनी ने कहा खूब तरक्की करे मगर पैर जमीन पर ही रहे तो अच्छा हैं. राँची जैसे छोटे शहर से निकलकर क्रिकेट जगत में लोहा मनवाने वाले धोनी के पैर जमीन पर ही हैं, मीडिया में ही समय समय पर कप्तान के रूप में मनमानी करने के आरोप लगते रहते हैं. युवराज को हालिया श्रृंखला में असफल रहने के बावजूद मौका देने को मीडिया ने काफी जोर शोर से उठाया , लेकिन अंततः धोनी का निर्णय सही साबित हुआ.
आई. पी. एल. लीग में सबसे ज्यादा बोली लगने के बाद उनके ब्रांड वैल्यू में और भी इजाफा हुआ हैं,लेकिन दर्शक अभी भी उनके द्वारा यॉर्कर बॉल पर छक्का मारते देखना चाहते हैं ,जो कि उनका कॉपीराइट शॉट हैं.ना कि मैदान के बाहर लगने वाले ये छक्के.

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2008

खल गया खली का हारना

हिन्दी खबरिया चैनलों के लिये पिछले कई महीनों से हाथ लगा एक मसाला एकाएक इस रविवार को हाथ से फिसल गया. तीन मिनट में डब्लयू.डब्लयू.ई. के रेस्टलिंग मुकाबले में धूल चाटने वाले खली ने देश के सभी प्रमुख चैनलों के प्राइम टाइम के तीन तीन घंटे की बाट लगा दी. खली का हारना इतना खला कि उसकी हार को प्राइम टाइम में तीन मिनट भी नहीं मिले.
टी.आर.पी. के खेल ने जहाँ देश के सभी हिन्दी चैनलों को खली का खेल दिखाने को मजबूर किया, वहीं इसकी हार ने इस खबर पर सोमवार को चैनलों को खेलना का मौका नहीं दिया. शनिवार और रविवार को सभी न्यूज चैनल खली की खबर पर इतना खेले कि उन्हें आगे खेलने का मौका ही नहीं मिला.
हकीकत जैसी खबर वैसी का दावा करने वाले चैनल " जी न्यूज" ने तो शनिवार को प्राइम टाइम में खली के अलावा आधा घंटा संजय दत्त की शादी बचाने को दे दिया नही तो पता ही नही चल रहा था कि हम कोई समाचार चैनल देख रहे हैं. रविवार को भी वही हाल रहा.'जूनियर खली', 'खली बनो बजरंगबली' जैसे कार्यक्रम जारी रहे.लेकिअन हार को अगले दिन तीन मिनट भी नहीं मिले.
आज तक ने भी इसमे कोई कसर नही छोडी. स्टार न्यूज तो कितनी बार खली को ही दिखाकर टी.आर.पी. के खेल में नंबर वन चैनल बना था तो वो भी पीछे नहीं रहा.आज तक ने 'खेल रहा है खली' , 'आई लव यू खली' और 'खली बन जा काली' दिखा अपने प्राइम टाइम के समय का सही उपयोग किया.
अंततः खली का हारना इन चैनलों के लिये सबसे बडी हार साबित हुयी. फिर से उन्हीं खबरों पर लौटना जो कि टी.आर.पी. ला सके की खोज जारी हैं. इंतजार करते रहिये अगले खली या राम का जो कि प्राइम टाइम पर करिश्मा दिखा सके.

बिजनेस अखबारों ने भी समझा हिन्दी का मह्त्त्व

"हिन्दी तो देश की धडकन हैं"- प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने आवास पर आये इकोनॉमिक टाइम्स के पत्रकारों से कहा, जब उन्होनें इस अखबार का हिन्दी संस्करण का पहला अंक प्रधानमंत्री को सौंपा.पिछले एक हफ्ता में यह बिजनेस अखबारों का हिन्दी में निकलने वाला दूसरा पत्र बना. इससे पहले बिजनेस स्टैंडर्ड ने भी हिंदी में ही बिजनेस अखबार निकाला. इस तरह एक ही सप्ताह में देश के दो अँग्रेजी के प्रमुख बिजनेस अखबारों ने अपना हिन्दी में संस्करण निकाल जहाँ हिन्दी भाषी वर्ग के बीच अपनी पैठ बनाने की सोची हैं, वही यह बात भी साबित हो रही हैं कि इस देश में अभी भी हिन्दी भाषा का अँग्रेजी से कमतर महत्त्व नही हैं.
देश में पहले से ही दो हिन्दी के बिजनेस चैनल - सीएनबीसी आवाज और जी बिजनेस दर्शकों में बाजार में होने वाले उठापटक की तस्वीरें दिखाकर सम्मोहित करने में कोई कसर नहीं छोड रखा हैं.अब जाकर प्रिंट मीडिया ने भी इस तरफ पहल की हैं, जो कि आने वाले समय में काफी लाभ का सौदा साबित होगा. इकोनॉमिक टाइम्स ने तो इससे पहले गुजराती संस्करण निकाल क्षेत्रीय भाषा में अपनी पैठ बना रखी थी, वहाँ की सफलता देख हिन्दी में बिजनेस अखबार निकालना मुनाफे का ही सौदा लगा. अब किसी भी काम का बॉटमलाइन जहाँ सिर्फ प्रॉफिट रह गया हैं वहाँ इन बिजनेस अखबारों के इतने दिन बाद निकलने का सिर्फ यही एक मतलब हैं.
शेयर बाजार में रोज हो रही उठा पटक को समझने के लिये भी सिर्फ चैनलों या अखबारों के एक पन्ने के भरोसे तो नहीं रहा जा सकता हैं इसलिये हिन्दी भाषी लोगों के लिये यह एक जरूरत भी बन गयी. लाल-पीले रंग के दिखने वाले इन अखबारों को पढकर एक्सपर्ट तो नहीं बना जा सकता हैं लेकिन बाजार की भेडचाल को समझने के लिये एक माध्यम हो सकता हैं.
बाजार की समझ और हिन्दी में पकड रखने वालों के लिये भी बिजनेस पत्रकारिता के नये एवेन्यू खुलेंगे.एक बार तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक बिजनेस अखबार ने बहुत पहले अपने अखबार में कॉलम लिखने के लिये एक लाख रूपये महीने देने की पेशकश की थी, लेकिन इतनी बडी राशि होने के कारण उन्हें यह जँचा नही. हिन्दी अर्थशास्त्रीयों के लिये भी यह सुनहरा मौका होगा कि वे भी अपना ज्ञान इन अखबारों के माध्यम से पाठकों के साथ शेयर करें.
बाजार ने भी अंततः हिन्दी की महत्ता समझी,लेकिन इसमें भी लाभ देखकर ही,ऐसे नहीं.

शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

अगर शादी करने जा रहे हैं तो बनाइये अपना "वेडपेज"

जी हाँ. इंटरनेट के इस युग में अगर अपने दूर-दराज के इलाकों में रहने वाले संबंधियों और दोस्तों को इस बात की शिकायत रहती हैं कि कार्ड नहीं मिला,तो उनकी इस शिकायत को दूर करने के लिये भी इंटरनेट पर ऐसी सेवायें मौजूद हैं कि आप अपने सगे-संबंधियों को ई-निमंत्रण भेज सकते हैं.इसके लिये आपको कुछ ऐसी साइटे है जहाँ जाकर अपना रजिस्ट्रेशन करवाना होगा.और अपने मनपसंद ले-आउट में, पसंद के रंगों में ऐसे "वेडपज" बना सकते हैं,जिसमे कि आपकी,आपके जीवन-साथी की जानकारी,तस्वीरें और शादी के कार्यक्रमों की पूरी सूचना के अलावा शादी-स्थल की जानकारी और आपके शहर में पडने वाले अन्य महत्त्वपूर्ण स्थलों की जानकारी हो सकती हैं.
अभी अपने देश में यह पहल नयी हैं,फिर भी ऐसे साइटों पर इसके विषय में जानकारी लेनेवालों की कमी नहीं है.ये साइटे हैं- ऑवरवेडिंग.इन , फर्स्टफेरा.कॉम और माईड्रीमशादी.कॉम . इन साइटों पर जाकर आप भी अपनी शादी के निमंत्रण कार्ड बनवा सकते हैं और इसे अक्सेस करने के लिये अपने सगे संबंधियों को इसका कोड भेज सकते हैं.इतना ही नही अगर शादी के बाद भी आप अपनी शादी को यादगार बनाकर रखना चाहते हैं तो शादी के फोटो डॉउनलोड कर इस वेडपेज को लंबे समय तक भी रख सकते हैं.
अब आपके दूर के सगे संबधी इस बात की शिकायत तो नही कर सकेंगे कि आपका तो कार्ड ही नही मिला,इतना ही नहीं शादी की सूचना मिलने के बाद उनकी यह जिज्ञासा भी कि लडका या लडकी क्या कर रहे हैं? कैसे हैं? कब मिले? क्या फैमिली बैकग्राउंड हैं- शांत हो जायेगी. इन सब चीजों की जानकारी वेडपेज पर रहने से आप भी इन तरह के सवालों से बच जायेंगे.
अब आप आसानी से अपने डी-डे की सूचना आने सगे संबंधियों या यारों-दोस्तों को एक नये तरीके से दे सकते हैं.तो देर किस बात कि हैं अगर शादी करने जा रहे हैं तो एक "वेडपेज" भी बना डालिये नये तरीके से आमंत्रण भी दे डालिये.

मुंबई हमारी....क्यूँ भाई चाचा, हाँ भतीजा.

मुंबई और महाराष्ट्र के और इलाकों से उत्तर भारतीयों का पलायन होना जारी हैं.मुंबई से रेल से जुडे उत्तर भारत के प्रमुख शहर के स्टेशनों पर सैकडों की संख्या में भागकर वापस आए लोगों का यह कहना कि अपने यहाँ रूखा-सूखा ही क्यों ना मिले वही खाकर रह लेंगे, लेकिन वापस बंबई नहीं जायेंगे - यह अपने आप में एक दर्द को बयाँ करता हैं. यह दर्द हैं उनकी उस बेबसी का जिसमें उनकी राज्य की सरकारें अपने यहाँ दो वक्त की रोटी नहीं मुहैया करवा पा रही हैं और अगर दूसरे राज्य में जाकर अगर किसी तरह दो जून की रोटी मय्यसर होती हैं तो वहाँ के सियासतदाँ अपनी सियासत चमकाने के खातिर संविधान तक को बदलने की मांग करते हैं.
जी हाँ, बात हो रही हैं महाराष्ट्र में पिछले एक पखवाडे से चल रही उठा पटक करने वालों की. बात हो रही हैं राजनीति में अपनी पारी शुरू करने वाले राज ठाकरे की, जो कि अपने चाचा शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के राजनीतिक वारिस तो नही बन सके,लेकिन उनकी ही पुरानी नीति पर चलकर अपनी राजनीति को चमकाने का काम किया हैं.यही हैं राज की 'राजनीति'.
साठ के दशक में जहाँ बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीयों को खदेड कर अपनी राजनीति चमकाने का काम किया था,वही काम आज उनके भतीजे राज उत्तर भारतीयों को खदेडकर कर रहे हैं और काफी हद तक इस काम में उन्हें सफलता भी मिली हैं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस युग में काफी कम समय में राज ठाकरे को लोगों ने जान लिया.उनके इस दाँव से शिव सेना को अपने हाथ से मराठी मानुष,मी मुंबईकर का मुद्दा निकलता हुआ नजर आ रहा हैं. इसलिये तो 'सामना' में तरह तरह के आलेखों के द्वारा अपने बिखरते वोट बैंक को बचाने की कवायद दिन-प्रतिदिन की जा रही हैं.
महाराष्ट्र सरकार के द्वारा हिंसा के शुरूआती दिनों में अपने से कोई कदम नहीं उठाना भी उनकी इसी मानसिकता का परिचायक हैं.केंद्र सरकार के कहने पर ही कुछ कदम उठाये गये,लेकिन ये भी नाकाफी साबित हो रहे हैं.लोगों का पलायन जारी हैं,उनको एक नयी जिंदगी शुरू करने की मजबूरी एकाएक सामने आन पडी. जब अपने देश में ही इस तरह की स्थिति का सामना करना पडेगा तो फिर राष्ट्रीय एकता का क्या मतलब रह जायेगा.
इस तरह की राजनीति कर देश का कोई भला नहीं होने वाला हैं . क्षेत्रीयता,जातीयता,संप्रदायिकता और भाषावाद पर होने वाली राजनीति से किसी का भला नही होता हैं, भला होता हैं तो सिर्फ राजनेताओं का जो लोगों के मन में छिपी इस तरह की भावनाओं को उभारकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का काम करते हैं और पिसती हैं आम जनता . हाल की ही घटना की बात करे तो नासिक में मरने वाला पहला व्यक्ति महाराष्ट्रीयन ही था.क्या राज ठाकरे के पास इस बात का कुछ जवाब हैं,नहीं उन्हें तो अपनी राजनीति करने से मतलब हैं.
ऐसा भारत में कब तक चलेगा? इसका तो फिलवक्त कोई जवाब नही हैं,लेकिन राजनीति करने वालों के लिये तो ऐसा चले तो वो ही अच्छा हैं.हमारा क्या हैं? यूँ ही पिसते रहेंगे. तब तक चाचा के सुरों पर भतीजे को अपनी तान छेडने दिया ज़ायें.

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

"ओबामा" वर्सेस "ओसामा"

अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव होने में अभी काफी दिन बाकी हैं.डेमोक्रेट के उम्मीदवार के रूप में बराक ओबामा का चयन लगभग तय ही माना जा रहा हैं,ऐसी स्थिति में परिवर्त्तन चाह रहे अमेरिकी इस बार सत्ता में डेमोक्रेटिक़ उम्मीदवार को ही राष्ट्रपति बनायेंगे.अगर सब कुछ सही चलता रहा तो बराक ओबामा का अगला राष्ट्रपति बनना तय माना जा रहा हैं.तो ऐसी स्थिति में अमेरिका पहली महिला राष्ट्रपति के बजाए पहला अश्वेत राष्ट्रपति पा जायेगा.इतिहास तो बनना तय माना जा रहा हैं.
नाम में क्या रखा हैं? ऐसा भले ही शेक्स्पीयर महोदय कह गये हो लेकिन अगर ऊपर वाली स्थिति बनती हैं तो फिर पूरे विश्व में आतंकवाद को बढावा देने वाले और आतंकवाद को समाप्त करने वाले दो प्रमुख शख्स के नामों में सिर्फ एक अक्षर का ही फर्क रह जायेगा और वो भी उल्टा. अक्षर हैं - 'ब' और 'स'. जिस शख्स के नाम में 'ब'हैं,वह उसे समाप्त करने की कोशिश करता नजर आयेगा,जबकि ठीक इसके उल्ट जिसके नाम में 'स' हैं वह तो इसे बढाने का काम कर ही रहा हैं. तब यह जंग और भी रोचक हो जायेगी.
पूरे विश्व के लिये नासूर बनता जा रहा आतंकवाद अब सिर्फ एक देश कि लडाई ही नही बन कर रह गया हैं,इस दिशा में सभी देशों को एक साथ पहल करनी होगी.यह आने वाले दिनों में ओबामा वर्सेस ओसामा की लडाई बन कर नही रह जायें. अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को आतंकवाद से लडने के लिये दिये गये धन का उपयोग जिस तरह पाकिस्तान ने भारत से लडने के लिये किया वह सही नही हैं, आज वही पाकिस्तान बारूद के ढेर पर खडा हैं.
विश्व के सभी देश किसी ना किसी रूप में इस नासूर से त्रस्त हैं इस लिये आने वाले समय में समेकित पहल की जरूरत हैं, भले ही इसे नाम देने के लिये "ओबामा" वर्सेस "ओसामा" का नाम दे दिया जायें.

प्रेमियों के लिये तो हैं ही वसंत

हर साल १४ फरवरी आती हैं और बीत जाती हैं. एक दशक पहले तो यह एक आम तारीख हुआ करती थी.आयी और गयी.लेकिन इस एक दशक में ही इतना कुछ बदल गया हैं कि सभी इस तारीख का इंतजार किया करते हैं.चाहे प्रेम करने वाले प्रेमी जोडे हो या इस पर पहरा देने वाले हमारे संस्कृति के ठेकेदार. जी हाँ, हम बात कर रहे हैं वेलेंटाइन डे की,जिसे खास तौर पर विदेश से प्रेम करने वाले दिन के रूप में आयातित किया गया हैं या यूँ कहे कि बाजारवाद ने इसे हम पर थोप दिया हैं.
बात करते हैं प्यार का इजहार करने वाले इस दिन की. संयोग से यह तारीख उस समय पडती हैं जब पूरा वातावरण बसंत के आगोश मे पहले से ही खोया रहता हैं. बसंत तो यूँ ही प्यार का प्रतीक हैं, एक दिन क्यों, हम पूरे महीने प्यार के उत्सव को मना सकते हैं,लेकिन नही मनायेंगे तो इसी खास तारीख को ही.चलिये आज की तेज भागती हुयी जिंदगी में एक ही दिन सही.प्रेमी जोडे को जिस शिद्दत से इस दिन का इंतजार रहता हैं उसी तरह इस दिन का इंतजार उनके प्रेम में खलल डालने वालों को भी रहता हैं,क्योंकि मुफ्त में उन्हे मीडिया का एटेंशन मिल जाता हैं जो कि उनकी राजनीति को चमकाने के लिये काफी जरूरी होता हैं.जगह जगह प्रदर्शन किया, तोड फोड की हो गया उनका वेलेंटाइन विरोध.
इन दोनों वर्गों से भी एक बडा एक वर्ग है जो कि इस दिन का रचयिता हैं यानि की बाजार. कार्डस,फूल,गिफ्ट और ना जाने क्या क्या सभी चीजों की बिक्री आने चरम पर रहती हैं. यह बाजार ही डिसाइड करता हैं कि कैसे अपने स्रोतों का उपयोग कर इस दिन को अपने लिये ज्यादा फायदेमंद बनाया जा सके. मीडिया भी इस चीज में बाजार का खूब साथ देती हैं. टी.वी. चैनलों और एफ.एम रेडियो स्टेशनों में तो सप्ताह बर पहले से ही इस दिन के लिये कार्यक्रमों की रूपरेखा खींच ली जाती हैं. वो स्वयं ऐसा नही करते बल्कि बाजार उनसे ऐसा करवाता हैं.
इस बार तो प्रेम के इस उत्सव को सफल बनाने के लिय जगह जगह प्यार में खलल डालने वालों से बचाने के लिये पुलिस का पहरा लगाया गया था. इस बात की खुशी प्रेमी जोडे के चेहरों पर देखी जा सकती थी.लेकिन उनकी खुशी को भी घर के लोगो के द्वारा जब जासूस लगवाकर मॉनिटर किया जाता हैं तो बात वही पर घूम फिर कर आ जाती हैं क्यों ना हम कितने मॉड बने घूमते फिरते हैं,सोच तो अभी भी भारतीय ही हैं.यही अपनी संस्कृति हैं और अपनी संस्कृति में तो प्रेम के लिये एक दिन नहीं पूरा महीना हैं.महीना क्या, साल हैं बशर्तें कि आप सही से देखे तो.

फिल्में भी परिवर्त्तन के वाहक बने तो अच्छा हैं..

सिनेमा समाज का आईना होती हैं.कभी कभी समाज को भी इससे काफी कुछ सीखने को मिलता हैं.आमिर खान की निर्देशक के रूप में पहली फिल्म 'तारे जमीन पर' ने जहाँ सफलता के नये प्रतिमान स्थापित किये वही इस फिल्म से समाज के कुछ क्षेत्रों में बदलाव भी आने शुरू हो गये हैं.फिल्म में डिस्लेक्सिया से पीडित बच्चे को रचनात्मक तरीके से समझाना और उसकी भीतर छिपी हुयी प्रतिभा को बाहर लाना दिखाया गया हैं.
इस फिल्म का समाज पर पडने वाले असर की बात करें तो अभिभावक अब अपने बच्चों की पढाई के प्रति कम रूचि होने के कारणों को खोजने में ज्यादा लग गये हैं. अखबार में छपी एक खबर की बात करे तो अब डॉक्टरों के पास अभिभावक बच्चों को इस लिये लेकर आने लगे कही उनका बच्चा डिस्लेक्सिया बीमारी का शिकार तो नहीं. डॉक्टरों ने भी इस तरह के केसेज बढने के भी संकेत दिये हैं.
केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड यानि सी.बी.एस.ई. ने भी इस बार से बोर्ड के परीक्षा में इस बीमारी से ग्रसित बच्चों को एक घंटा ज्यादा समय देने का फैसला किया हैं.इस तरह हम पाते हैं कि यह सीधा सीधा इस फिल्म का ही असर हैं नही तो इससे पहले इसके विषय में सोचा भी नही गया था.
फिल्मों के माध्यम से अगर इसी तरह भविष्य में समाज और देश के समस्याओं में किसी तरह का सुधार आता हैं तो निश्चय ही यह फिल्मों का एक अच्छा योगदान साबित होगा. मनोरंजन के साथ साथ लोगों के मन-मस्तिष्क को झकझोरने वाली फिल्में हमेशा के लिये एक मिसाल बन जाती हैं.

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

मासूमों की जिंदगी

मुंबई में स्कूल बस में एल.पी.जी. सिलेंडर के फटने के कारण चार स्कूली बच्चों को अपने जान से हाथ धोना पडा.मेरठ में मिड-डे मील बनाते वक्त एक शिक्षा मित्र के साथ चार बच्चें आग से झुलसे.पाकिस्तान में आतंकियों के द्वारा दो सौ स्कूली बच्चों को अपनी बात मनवाने के लिये बंधक बनाना फिर छोडना .इन सभी खबरों में स्कूली बच्चे ही शिकार बने हैं.स्कूली बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी स्कूल प्रबंधन की बनती है,लेकिन इन सब मामलों में देखा गया हैं कि कहीं ना कहीं लापरवाही बरती गयी ,जिसकी कीमत या तो बच्चों को जान देकर चुकानी पडी या ये घटनायें मासूमों के मन-मस्तिष्क में जिंदगी भर का घाव दे गयी.
बच्चों को स्कूल ले जाने के लिये जिन वाहनों का प्रयोग किया जाता हैं वे स्कूलों के निजी वाहन होते है या ठेके पर स्कूल द्वारा लिये जाते हैं. स्कूलों का अपना वाहन होने के कारण दुर्घटना की कम संभावना रहती हैं.फिर भी इन वाहनों की समय समय पर जाँच होती रहनी चाहिये.घर से निकलने के बाद जितनी देर बच्चा स्कूल के लिये बाहर रहे तब तक स्कूल की जिम्मेदारी होती है,लेकिन आजकल स्कूल में ही बच्चों के द्वारा अपने सहपाठियों को गोली मारने की घटनायें अपने देश में भी घट रही हैं.यह एक चिंता जनक विषय हैं.स्कूल प्रबंधन भी ऐसी घटनाओं के समय मामले की लीपापोती में जुट जाता हैं.
सरकारी योजनायें भी बच्चों के स्कूली जीवन में नयी नयी तरह की समस्या लाने का काम कर रही हैं. मिड-डे मील योजना के तहत मेरठ में हुयी दुर्घटना से बच्चों के झुलसने की घटना भी कम ह्रृदयविदारक नहीं हैं.बच्चे स्कूल पढने के लिये जाते हैं ना कि भोजन बनाने के लिये. इससे पहले भी इसी मिड-डे मील को किसी निम्न जाति की महिला द्वारा बनाये जाने पर बच्चों द्वारा खाने से इंकार करने पर कहीं ना कहीं इन बच्चों में जाति का जहर घोला जा रहा हैं.
पाकिस्तान में पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत की एक इलाके में पूरे स्कूली बच्चों को बंधक बनाकर छोडने की घटना भी इस ओर इशारा करती हैं कि स्कूली बच्चों को आसानी से निशाना बनाया जा सकता हैं.वैसे भी बच्चों की अपहरण की घटना को ज्यादातर स्कूल से आते या जाते वक्त ही अंजाम दिया जाता हैं.ऐसे में स्कूल प्रबंधन ज्यादातर अपना पल्ला झाडने का ही काम करती हैं,जबकि ऐसा नही होना चाहिये.महानगरों में वैसे भी माता-पिता दोनों काम पर जाते हैं जिस कारण भी बच्चों को ज्यादा एटेंशन नहीं दे पाते हैं,जिस कारण भी तरह तरह की घटनाएँ घटती रहती हैं.
स्कूल जाने की उम्र में ही बच्चों को उपरोक्त किसी घटना से दो-चार होना पडे,तो यह उनके मानसिक विकास के लिये ठीक नही हैं.इसलिये हमें चाहिये कि आज के बच्चों को ज्यादा से ज्यादा सुरक्षा मुहैया करवाया जायें,स्कूल प्रबंधन भी समय समय पर ऐसे कदम उठायें जिससे कि बच्चों की सुरक्षा में कहीं चूक ना हो ताकि वे भी हँसते खेलते हुये अपने स्कूली जीवन को जीयें.साथ ही ऐसे सामाजिक और नैतिक मूल्यों का भी पाठ पढायें कि आगे चलकर वे भी एक आदर्श नागरिक बन सके.

शनिवार, 26 जनवरी 2008

शेर ही टिकते हैं शेयर बाजार में

नये साल में मुंबई शेयर बाजार के सूचकांक ने जिस तरह से २१ हजार की ऊँचाई को छुआ,उसी तरह इस सोमवार और मंगलवार को भारी गिरावट दिखा छोटे निवेशकों का दो दिनों में दस लाख करोड का नुकसान करा दिया. वैसे भी यह बात समझ नही आती हैं कि छोटा निवेशक जब इस लालच में बाजार में पैसा लगाने जाता हैं कि उसका पैसा चंद दिनों में दुगुना हो जायेगा.तो उसे इस बात की समझ नही रहती हैं कि यह आधा भी हो सकता हैं.शेयर बाजार कोई जादुई जगह नही हैं जहाँ पैसा रातों रात जेनेरेट होता हैं और सुबह जब बाजार खुलता है तो ये निवेशक उसे लेकर चलते बनेपैसा तो उतना ही रहता हैं, यह सिर्फ एक हाथ से दूसरे हाथ में चला जाता हैं.इसमें पहला वाला हाथ भी आपका हो सकता है और दूसरा वाला भी.
आजकल हर कोई नया व्यक्ति लाल-पीले अखबार और बिजनेस चैनलों को देखकर कुछ दिन में ही अपने को शेयर बाजार का एक्सपर्ट समझने लगता हैं.साथ ही साथ लोगों के मुँह से यह सुनकर कि फलाँ का पैसा दो दिन में दुगुना हो गया यह सुनकर बाज़ार में पैसा लगाने चला आता हैं.शेयर बाजार नें शुरूआती दिन में जहाँ गिरा वहीं सप्ताह कें अंत में ह्ज़ार अंक ऊपर भी तो गया.यहाँ बाज़ार गिरता देख काफी छोटे निवेशक तो अपना पैसा निकाल चुके होंगे.बस यही पर वे मात खा जाते हैं.बाजार गिरता देख बडे बडे खिलाडी पैसा लगाकर पैसा बनाने का काम करते हैं.यही छोटे और नये निवेशक धीरज नही रख पाते है और हडबडी में निवेश किये पैसे को गँवा बैठते हैं.
भारतीय अर्थव्यवस्था के फंडामेंटल्स सही होने की दुहाई प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री देते रहे,लेकिन लोगों को सिर्फ अपने पैसे दुगुने होने से मतलब रहता हैं. निवेशक वह है जो पैसा लगाये और भूल जाये.कम से कम एक तिमाही का समय तो दे,यहाँ तो पैसा लगाया और नियम से प्रतिदिन उस शेयर का दाम देखने चला जाता है.जो कि सही नही हैं.इन्हें स्पेकटेटर कहा जाता हैं जो कि देखे और लपक पडे.नुकसान भी इन्हें ही उठाना पडता हैं.अतः इस बाजार में बडे से बडे खिलाडी भी धोखा खा जाते हैं.नये निवेशकों की बिसात ही क्या हैं? इसलिये इस बाजार से दूर ही रहना ज्यादा सही हैं.जो इस क्षेत्र में माहिर हैं वही इसे ब्लीड होता हुआ देख सकते हैं और साथ ही इस घाव को भरता भी देखते हैं.यहाँ तो शेर ही खून बहाता है और उसका मजा भी उठाता हैं.

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

आई.पी.एल.के लिये भी तो खिलाडी चाहिये

वर्त्तमान ऑस्ट्रेलिया दौरे के लिये वन-डे टीम का चयन किया गया तो उसमें दो वरिष्ठ खिलाडी को नहीं चुना गया.राहुल द्रविड और सौरव गांगुली की जगह नये खिलाडियों को मौका दिया गया.गांगुली को खराब फील्डिंग के कारण निकाला जा रहा हैं जब कि राहुल द्रविड जब टेस्ट में ही इतनी गेंद ले रहे हैं रन बनाने के लिये तो फिर वन-डे में क्या वे खाक रन बना पायेंगे.इसी बाच तरह तरह कि अफवाह चली कि धोनीअपनी टीम में युवा खिलाडी चाहते थे. वेंकटेश प्रसाद के कहने पर ऐसा हुआ. टीम में सीनियर और जूनियर खिलाडियों के दो धडे बन गये हैं.तरह तरह के कयास लगाये जा रहे हैं.जब कि ऐसा कुछ नही हैं.
बी.सी.सी.आई. की मह्त्त्वाकांक्षी योजना 'इंडियन प्रीमीयर लीग' की शुरूआत अप्रैल महिने से होनी है,इसके लिये भी तो खिलाडी चाहिये.तो क्यों ना कुछ ऐसा किया जाये कि ये खिलाडी पूरी तरह से इस धनकुबेर प्रतिस्पर्धा में तन और मन से लग जाये,धन तो इनपर बरसेगा ही साथ ही साथ बी.सी.सी आई. के भी वारे-न्यारे हो जायेंगे.यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा हैं.
दादा और द्रविड को वन-डे से आराम देकर ट्वेंटी-२० में अपने जौहर दिखाने का मौका दे रही हैं बी.सी.सी.आई. यहाँ आराम का मतलब संन्यास ले लेने से हैं.इसलिये अगले दिन ही अखबारों में यह खबर दिखायी दी कि इन खिलाडियों को ऑइकॉन खिलाडी के रूप में देखा जायेगा.अब तो कुछ दिनों बाद इन खिलाडियों की बोली लगने वली हैं.अब खिलाडी भी बिकेंगे. बोर्ड का सिर्फ एक ही मकसद हैं किसी तरह अपनी तिजोरी भरना.टीमें तो बिक ही चुकी हैं,अब खिलाडी बिकेंगे.
आई.सी.एल. और आई.पी.एल. सरीखी प्रतियोगिताओं के शुरू होने के बाद जो अंतर्राष्ट्रीय खिलाडी संन्यास ले लेता है,उसके तत्काल खेलने और अधिक से अधिक पैसा बनाने की चाह तो पूरी हो जाती हैं लेकिन जो खिलाडी अपने देश की तरफ से कुछ दिन और खेलना चाहता है,उसे अपने कैरियर के ढलान पर वैसा ही प्रदर्शन करना पडेगा जैसा कि वो अपने सुनहरे दौर में किया करता था.सब बढती प्रतिस्पर्धा का नतीजा हैं.
ऐसी स्थिति में क्रिकेट में काफी दिनों से चले आ रहे कहावत का भी कोई मायने नहीं रह जायेंगे- फॉर्म इस टेम्पररी,क्लास इज पर्मानेंट. खराब फॉर्म तो क्लास दिखाने इन लीगों में शामिल हो पैसा बनाइये ना कि सेलेक्टरों के लिये सिरदर्द बनिये.देश के लिये तो आपने खेला ही अब कुछ दिनों के लिये इन धनकुबेरों के लिये खेलिये.

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

गोविन्दा का थप्पड

अशोक चक्रधरजी ने गोविंदा के थप्पड पर एक कुंडली लिखी और जिस दिन लिखी उसी दिन दो कार्यक्रमों में उसे सुनाया. कुंडली मतलब जन्मकुंडली नहीं बल्कि जिस शब्द से कविता शुरू की जाती है,उसी शब्द पर आकर खत्म हो जाती हैं. इस छोटी कविता का अपना भाव हैं. यह कुछ इस प्रकार से थी -
कुर्सी दर्शक से हिली, थप्पड़ मारा एक,टीवी ने तकनीक से, थप्पड़ किए अनेक।थप्पड़ किए अनेक, तैश में थे गोविन्दा,राजनीति में खेल चल पड़ा निन्दा-निन्दा।चक्र सुदर्शन, अगर रोकनी मातमपुर्सी,क्षमा मांग ले, वरना हिल जाएगी कुर्सी।
इस कविता के माध्यम से मीडीया पर भी निशाना साधा. खैर बात गोविन्दा की हो रही है, आखिर क्यों एक आम जनता को थप्पड मारा गोविन्दा ने? यह वही आम जनता हैं जिसके सामने चुनाव के वक्त हाथ जोडकर वोट देने की बात करते हैं. यह वही जनता हैं जो उनकी फिल्मों को सफल करवाती हैं तो यह कहते हुये नही अघाते है कि मुझे दर्शकों का ढेर सारा प्यार मिला. थप्पड मारने के दो दिन बाद जब थप्पड खाने वाला मीडिया के सामने आया तो गोविन्दा ने भी अपने बयान को सही साबित करने के लिये दो जूनियर आर्टिस्ट को समने खडा कर दिया.इससे तो एक बात स्पष्ट होती है कि अपनी गलती पर पर्दा करने के लिये पर्दे से ढँकी दो लड्कियों की मदद लेनी पडी.मीडिया द्वारा यह पूछने पर कि आप उनसे माफी माँगेगे तो जवाब था मैं एक थप्पड और मारता हूँ. जब बात इस हद तक बढ चुकी है तो गोविन्दा कैसे माफी माँग ले.
एक बार फिर से कमबैक करने वाले गोविन्दा का अगर यही हाल रहा तो फिल्मों में तो किसी तरह पारी सँभल जायेगी लेकिन राजनीति में ऐसा नही होता हैं.जब यही आम जनता वोट रूपी ताकत का एह्सास करवाएगी तब जाकर पता चलेगा अगर माफी माँग लेते तो ज्यादा अच्छा होता.वैसे भी उनके लोकसभा क्षेत्र में ऐसे होर्डिंग लगे है कि हमारे क्षेत के सांसद गोविन्दा आहूजा लापता हैं उनका पता बताने वाले को इनाम दिया जायेगा. संसद में भी उनकी उपस्थिति काफी कम हैं ऐसी स्थिति में क्या वो अपने फिल्मी कैरियर और राजनीतिक कैरियर से न्याय कर पा रहे हैं? नहीं. दर्शक अभी भी गोविन्दा को एक एक्टर के रूप में ही जानता हैं,अगर वहाँ भी अपनी इमेज में बट्टा लग्वाते रहे तो किसी भी कुर्सी के लायक वो नही रह जायेंगे.

बुधवार, 23 जनवरी 2008

टी.आर.पी. काल में रामायण

एनडीटीवी इमैजिन चैनल के लांच के साथ ही एक बार फिर से भारतीय दर्शकों को फिर से "रामायण" सीरियल देखने का मौका मिला. एक नये कलेवर और नये स्टारकास्ट के साथ रामायण का पहला एपिसोड देखने के वक्त आज से बीस साल पहले रामानंद सागर द्वारा बनाये गये रामायण की याद आना स्वाभाविक है और साथ ही तुलना करना भी. उस वक्त सिर्फ दूरदर्शन चैनल था और रविवार की सुबह सभी काम को छोड सपरिवार रामायण सीरियल देखने का एक अलग ही आनंद था.
पिछले एक महीने में जेनेरल इंटरटेनमेंट चैनल कैटेगरी में जी समूह का 'जी नेक्स्ट',आई.एन.एक्स ग्रुप का 'नाइन एक्स' और अब एनडीटीवी का 'इमैजिन' चैनल लांच हुआ हैं, इन तीनों चैनलों में मुख्य रूप से वही प्रोग्राम आयेंगे, जो कि आज कल दर्शकों की पसंद के माने जाते हैं जैसे फैमिली ड्रामा, रियलिटी शो आदि. लेकिन यही इमैजिन चैनल के सीईओ समीर नायर ने एक बार फिर से भारतीय दर्शकों के सामने एक बार फिर से पौराणिक कथा को पेश कर अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया हैं.यह एक कार्यक्रम ही इन तीन चैनलों में इमैजिन को अलग पहचान दिलवा रहा हैं.
आजतक भारतीय चैनल पर अगर सबसे ज्यादा टी.आर.पी. अगर किसी सीरियल ने बटोरी है तो वह रामायण सीरियल ही है.इसी बात का ध्यान रखते हुये एकबार फिर से रामायण सीरियल को पर्दे पर लाने की जिम्मेदारी सागर आर्टस को ही मिली.अभी भी सागर आर्टस सब से ज्यादा देखे जाने वाले चैनल दूरदर्शन के लिये ही कार्यक्रम बनाने के लिये इच्छुक था,लेकिन समीर नायर के रामायण बनाने के प्रस्ताव को टाल नही सका और जिसकी परिणिति महानगरों के दर्शकों के लिये एक नये रामायण के साथ आयी. इस बार की रामायण में पिछले बार के रामायण से कुछ खास अंतर तो देखने को नही मिलेगा, लेकिनइस बार की रामायण में पिछले बार के रामायण की कहानी से कुछ खास अंतर तो देखने को नही मिलेगा, लेकिन नयी तकनीक के उपयोग से इसे और भी भव्य बनाया गया हैं.
पिछले रामायण की एक दो चीजें खोजने का प्रयास हमने किया तो वो नही मिली.एक तो कलाकारों के असली नाम जो कि बचपन में हम बच्चें याद करना या यूँ कहे कि एपिसोड के अंत में आने वाले कलाकारों का नाम बताने की होड लगी रहती थी और दूसरा स्वाभिकता. कलाकारों के अभिनय में आनंद सागर ने रामानंद सागर वाला काम नही निकलवाया.वैसे इस बार राम का किरदार गुरमीत चौधरी और सीता का किरदार देबिना बनर्जी ने निभाया है.
आज के दिन फिल्म जगत में जहाँ रीमेक बनाने की होड चल रही हैं वही टीवी में भी अपने जमाने के सबसे लोकप्रिय धारावाहिक को फिर से प्रस्तुत करना अनोखी पहल हैं.ऐसा नही है कि धार्मिक सीरियलों का जमाना लद गया हैं, अभी भी अगर सही तरीके से बनाया जाये तो इसे देखने वालों की संख्या बधेगी ही. सिर्फ स्पेशल एफेक्टस के जरिये सफलता की कामना करना बेवकूफी हैं.
भारतीय संस्कृति की यह कहानी जीवन में ऊँचे नैतिक मूल्यों और आदर्शों को स्थापित करने की सीख देती है, क्या यह आज परिवार को तोडने वाले सीरियलों पर भारी पडेगा? यह आने वाले समय में टी.आर.पी से ही पता चल पाएगा.

शुक्रवार, 11 जनवरी 2008

टाटा का 'कार'नामा

बात सन १९८७ की है,जब मैं अपनी नानी के यहाँ जा रहा था.चाचा ने मारूति की ओमनी गाडी नयी नयी ली थी.उसी से सपरिवार हम जा रहे थे.बातों ही बातों में मैंने गाडी की कीमत का अनुमान दस हजार रूपये लगाया,तो यह उत्तर आया कि अगर यह इतनी सस्ती होती तो सडक पर चलने की जगह नहीं होती.उस समय गाडी की कीमत एक लाख रूपये थी.जो कि मेरे कल्पना से बाहर थी.
आज फिर हम उसी बीस साल पहले वाली स्थिति में हैं,एक लाख की गाडी फिर से सडक पर आने वाली हैं,लेकिन एक लाख रूपया आज दूसरे अंदाज में चौंकाता हैं.रतन टाटा ने एक परिवार को स्कूटर पर जाता देखकर इस कार की कल्पना की और चार साल बाद अपने वादे को निभाते हुये एक लाख की कीमत में ही कार की लाँचिंग की.३३ हॉर्सपावर और ६२४ सीसी इंजन वाली यह "नैनो" कार भारत की अब तक सबसे सस्ती कार मारूति ८०० के मुकाबले भीतर से २१ फीसदी बडी होगी वही बाहर से ८ फीसदी छोटी होगी. एक लीटर में बीस किलोमीटर का दावा करने वाली यह गाडी फुल फ्रंटल टेस्ट से भी गुजर चुकी हैं,जो कि अभी भारत की सडक पर चलने वाली कई गाडी इस टेस्ट से नही गुजरी हैं.
कार से प्रदूषण कम हो इसका भी ध्यान रखा गया हैं.यह गाडी भारत-थ्री और यूरो-फॉर मानकों पर खडी उतरती हैं,इसका मतलब भविष्य को ध्यान में रख कर बनाया गया हैं क्योंकि भारत में अभी तक यूरो-फॉर मानक की गाडियाँ अभी तक बाजार में नही आयी हैं.इसी पर लाँच करते वक्त रतन टाटा ने पचौरी साहब और सुनीता नारायण के चैन से सोने की बात की. लेकिन एक साल में ढाई लाख यूनिट सडकों पर उतारने का लक्ष्य प्रदूषण के साथ साथ सडक पर वाहनों को रेंगने वाली स्थिति में ला देगा.
भारत की राजधानी दिल्ली में इस वक्त जहाँ प्रगति मैदान में नैनो गाडी की लाँचिंग हुयी वही उसके बाहर सडकों पर दो-दो घंटे का जाम लोगों को झेलना पड रहा हैं. सात करोड दुपहिया वाहनों और एक करोड निजी कार वाले देश में अभी ही सडकों पर जाम की स्थिति आम हैं.इसका एकमात्र कारण सरकार द्वारा सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पर ध्यान नही दिया जाना हैं.ऐसी स्थिति में लोग निजी वाहन की व्यवस्था ना करे तो और क्या करे.अब नैनो के सितंबर माह से आने के बाद दिल्ली में तो स्थिति बिगडने वाली ही हैं.अभी भी दिल्ली में अकेले अन्य तीन महानगरों से भी ज्यादा वाहन हैं.
नैनो की लाँचिंग भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग के लिये एक मील का पत्थर साबित होगी.१९८० के शुरूआती दशक में जहाँ भारत में कार उत्पादन की संभावनायें तलाशी जा रही थी वहीं आज जैगुआर और लैंडरोवर जैसी गाडी भारतीय कंपनी के ब्रांड के रूप में निकलेगी.भारतीय उद्यमिता की यह नायाब मिसाल है कि आज हम विश्व को सबसे सस्ती गाडी देने में सफल हुये हैं.चीन से उत्पादित होने वाली सबसे सस्ती गाडी से आधे मूल्य पर यह गाडी अब लोगों को मिल सकेगी.
तीस हजार करोड रूपये वाली कंपनी टाटा मोटर्स ने भले ही इस गाडी की मनक कीमत अभी एक लाख रूपये रखे हैं,लेकिन कितने दिनों तक इस कीमत पर कायम रहेगी,इस पर बोलने को कोई तैयार नही हैं, साथ ही इस गाडी पर कंपनी को कितना मुनाफा होगा,यह भी तय नहीं हैं.लेकिन मध्यम वर्ग को इन सबसे क्या लेना देना,अब तो कुछ ही दिनों में उनका भी कार रखने का सपना पूरा होने वाला हैं,क्यों न पेट्रोल और डीजल की बढती कीमतों के बीच यह उनके घर के आगे एक नुमाइश की वस्तु ही बनकर खडी हो.

गुरुवार, 10 जनवरी 2008

माइंड गेम से हारी टीम इंडिया

"इंडिया विन सिडनी टेस्ट" शीर्षक वाली खबर द टाइम्स ऑफ इंडिया में देखकर अचंभा हुआ.एक बार तो सहसा विश्वास ही नही हुआ,ये आखिर हुआ कैसे? क्या यह मैच भारत को दे दिया गया या इस शीर्षक के कोई और मायने हैं.हरभजन सिंह पर तीन टेस्ट मैचों की पाबंदी के बाद भारतीय मीडिया ने तो इसे भारत की प्रतिष्ठा का विषय ही बना दिया. देश के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले चैनलों के लिये अपने प्राइम टाइम का पूरा समय भी दिया जाना कम लग रहा था.अगर अखबार और टेलीविजन चैनलों की बात करे तो दोनों माध्यमों ने अंपायर स्टीव बकनर को लताडने में कोई कोर कसर नहीं छोडी.इतना सब होने के बाद भी हम कहे कि हमने सिडनी टेस्ट जीता हैं तो यह सरासर गलत होगा.
टेस्ट मैच के दौरान पहली पारी में भारतीय टीम द्वारा बढत लेना जब ऑस्ट्रेलियाई टीम को नागावार गुजरने लगा तब उसी समय दुनिया की सर्वश्रेष्ठ टीम नें 'माइंड गेम' खेलना शुरू किया और एक वक्त ड्रॉ के तरफ जा रहे मैच को अपने पक्ष में करने में कामयाब रही.इस बार इस माइंड गेम का शिकार बनाया हरभजन सिंह को और वो इसमें फँस भी गये.हरभजन सिंह ने दूसरी छोड पर बैटिंग कर रहे सचिन से कोई सीख लेने की कोशिश नही की.सचिन को भी कितनी बार स्लेजिंग का सामना करना पडा हैं,लेकिन उसका जवाब हमेशा अपने बल्ले से दिया हैं न कि पलट कर जवाब देकर.हरभजन के बॉडी लैंग्वेज से यही लगता हैं कि साइमंडस की बात का वह जवाब नही देते तो वर्बल मैच तो वे वही हार जाते.पलट कर जवाब देने की कोई जरूरत नहीं थी. ऑस्ट्रेलियाई अपने चाल में कामयाब हो गये.
अगला टेस्ट पर्थ में खेला जाना हैं और उस मैच में भारत को यह साबित करना ही होगा कि सिडनी में अगर अंपायरिंग डिशीजन गलत नहीं होते तो मैच का नतीजा कुछ और ही होता.पर्थ की उछाल भरी पिच पर भारतीय बल्लेबाजों की अग्नि-परीक्षा होने वाली हैं.जीत से नीचे कुछ भी परिणाम भारतीयों के लिये अपने को साबित करने के लिये नाकाफी होगा.क्योंकि जीतने वाली ही टीम नियम तय करती है.सिडनी में भारत की हार के लिये सिर्फ बकनर और बेंसन को ही जिम्मेदार ठहराना ठीक नही होगा. दूसरी पारी में भारतीय बल्लेबाजों के लिये 'तू चल मैं आया' वाली स्थिति हो गयी थी. मैच को आसानी से ड्रॉ कराया जा सकता था,लेकिन अब २-० की बढत के साथ ऑस्ट्रेलिया को मनोवैज्ञानिक बढत मिल गयी हुई हैं,इसलिए भारतीय टीम की राह अब भी आसान नही हैं.

शुक्रवार, 4 जनवरी 2008

सबसे पहले हँसा कौन?

स्टार वन के सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम 'द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज पार्ट-तीन'के दौरान कुलदीप दुबे नाम के प्रतिभागी ने इतिहास के किताब में 'लाफ्टर आंदोलन'की बात कही थी,उसी दौरान एक मैडम ने अपने क्लास में छात्रों से पूछा कि हँसी का आविष्कार किसने किया? तो छात्र ने जवाब दिया आविष्कार का तो पता नही लेकिन इसका सबसे ज्यादा उपयोग नवजोत सिंह सिद्धू ने किया .इस बात पर हँसी तो आयी,लेकिन हँसी आयी कहाँ से? सबसे पहले किसने इसका उपयोग किया था? यह प्रश्न मेरे दिमाग में घूमता रहा.
अंततः इस बात का पता चल ही गया कि हँसी का आविष्कार हम मानवों ने नही बल्कि हमारे पूर्वजों यानि लंगूरों की एक प्रजाति ऑरंगउटन ने की. इसका पता अंतर्राष्ट्रीय शोधार्थियों ने चार विभिन्न जगह पर पच्चीस ऑरंगउटन पर किये गये शोध के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला.पोर्टसमाउथ यूनिवर्सिटी की शोधार्थी डॉ. मरियाना डेविला रॉस के अनुसार मानव में फेसियल मिमिक्री करने की क्षमता से पहले यह लंगूरों में आ चुकी थी.
शोध में यह भी पाया गया कि अपने साथी कि नकल करने में यह ऑरंगउटन आधे सेकेंड का वक़्त लेते हैं.जो कि हमारे द्वारा लिये गये समय से भी कम है,तो सोच सकते है कि हँसने के मामले मे भी हम फिसड्डी ही हैं.अगर सिद्धु साहब कि बात कि जाये तो वे भी एक सेकेंड का तो वक्त ले ही लेते हैं.
ये तो रही हँसी की बात.लेकिन आपने कभी सोचा हैं कि हमारे जिंदगी में हँसी नही रहे तो क्या होगा,दवाब के कारण हम अपना कोई भी ठीक तरीके से करने में सक्षम नहीं हो सकेंगे,इसलिये तो हिन्दी के मनोरंजन चैनलों के बाद समाचार चैनलों ने भी हँसी के कार्यक्रमों के लिये स्पेशल बुलेटिन ही बना दिये हैं.वो अलग बात हैं कि समाचार चैनलों पर मनोरंजन चैनलों पर दिखाये जाने वाले ही कार्यक्रमों के फुटेज के बीच एंकर की उपस्थिति दर्ज कराकर इसे अपना बुलेटिन बना लिया जाता हैं.हँसी का ओवरडोज होने के कारण अब यह भी प्रयोग भी अब बोरिंग लगने लगा हैं.कुछ नयापन हो तो कोई बात भी,लेकिन समाचार चैनलों ने तो कुछ नया ना करने की कसम खा रखी हैं.

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

भारत को सिडनी में डालना होगा जीत का सीड

नये वर्ष के आगमन पर सिडनी का आकाश रंग-बिरंगी आतिशबाजियों से इस कदर नहा गया कि देखने वालों के लिये यह मनोरम नजारा उनकी स्मृति में समा गया होगा.टेलीविजन के माध्यम से देश-विदेश के करोडों लोगों ने यह नजारा देखा होगा.इस नजारे को देखने के लिये भारतीय क्रिकेट टीम सिडनी में ही मौजूद थी,जो कि साल के दूसरे दिन पिछले साल की मेलबर्न टेस्ट की हार को भुलाते हुये नये साल में ऑस्ट्रेलिया के लिये सामने नयी चुनौती रखेगा.
भारतीय टीम के प्रदर्शन को देखते हुये ऐसा लगता हैं कि २००३ के दौरे से पहले एक क्रिकेट अधिकारी ने जो परिणामों के लिये भविष्यवाणी की थी ,वह इस बार सही साबित होगी. भारतीय टीम को एक बार फिर से इतने अहम दौरे से पहले अभ्यास मैचों के नाम पर एक वर्षा बाधित मैच खेलना पडा जो की काफी नही था.मेलबर्न टेस्ट के पहले दिन जब भारतीय टीम ने नौ विकेट चटकाये थे तब तो ऐसा लग रहा था कि यह मुकाबला पाँचवे दिन तक जायेगा.लेकिन भारतीय बल्लेबाजों ने दोनों पारियों में महज दो सौ रन का भी ऑकडा नही छुआ और मैच का नतीजा चौथे दिन ही आ गया.गेंदबाजों ने अपना कमाल तो दिखाया लेकिन बल्लेबाज फिसड्डी साबित हुये.सिर्फ एक अर्ध-शतक देखने को मिला वह भी तेंदुलकर के बल्ले से.
सिडनी के मैच से पहले भारतीय टीम के सामने ओपनिंग बल्लेबाज की समस्या को सुलझाना हैं.सेहवाग को मौका दिये जाने की स्थिति में गाज युवराज पर ही गिरेगी.एक विशेषज्ञ सलामी बल्लेबाज से आगाज करने के बजाय दो सलामी बल्लेबाज से ओपनिंग कराना ज्यादा ठीक होगा.रक्षात्मक बल्लेबाजी करके तो राहुल द्रविड ने तो पहले ही टीम को बैकफुट पर धकेल दिया था.सेहवाग के बल्ले से अगर सिडनी में रनों की बरसात हो जाती हैं तो ऐसी स्थिति में मध्यक्रम भी काफी अच्छा करके दिखा सकता हैं.
गेंदबाजी में अच्छा करने वाले जहीर के चोटिल होने के कारण तेज अनुभवी गेंदबाज की कमी खलेगी. मेलबर्न टेस्ट में दो स्पिनरों के साथ खेलना एक तरह से सही ही निर्णय रहा .इस तरह दोनों गेंदबाज को अनुभव तो मिला.कुंबले व हरभजन की जोडी आने वाले मैचों में भारत के लिये मैच जीताने वाली भी जोडी भी बन सकती हैं.जहाँ तक तेज गेंदबाजी का सवाल हैं,इरफान और आर.पी. पर फॉर्म में चल रहे मैथ्यू हेडेन और फिल जैक्स का विकेट जल्द से जल्द निकल कर देने की चुनौती होगी. वही हरभजन के लिये रिकी का विकेट एक बार फिर से प्राइज विकेट साबित हो सकता हैं.
सिडनी में भारत अगर मैच ड्रॉ कराने में भी सफल होता है,तो यह पिछली हार से निकलने का एक सही रास्ता होगा.पिछली बार भी एडिलेड टेस्ट में भारत की जीत के बारे में किसने सोचा था.भारतीय खिलाडियों को भी एक टीम के रूप में खेलते हुये एक सकारात्मक सोच के साथ मैच में उतरना पडेगा.

नये वर्ष की नयी चुनौतियाँ

नव-वर्ष के आगमन के साथ ही भारतीय राजनीति को नयी चुनौतियों का सामना करना पडेगा.बीते साल या यूँ कहे तो बीते सप्ताह में दो राज्यों के विधान-सभा के परिणाम भाजपा के पक्ष में जाने के साथ केंद्र की राजनीति में काँग्रेस को अपनी स्थिति और खराब होती हुयी दिखायी दे रही है.भारत-अमेरिकी परमाणु करार पर पहले से ही वाम दलों का दबाब झेल रही काँग्रेस इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में ही डाल कर रखना चाहेगी.भाजपा और वाम दलों के लिये एक कमजोर काँग्रेस ही उनकी राजनीति को केंद्र स्तर पर और मजबूत करेगी.इस साल सबसे पहले कर्नाटक में होने वाले विधान-सभा चुनाव में काँग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टी अपने बल पर ही वहाँ की सत्ता में आना चाहेगी.यही से दोनों पार्टी का राजनीतिक साल निर्धारित होगा.
भाजपा के लिये जहाँ मध्य प्रदेश,राजस्थान और छत्तीसगढ में एंटी इनकम्बेंसी का सामना करना पडेगा ,वही दिल्ली में काँग्रेस को भी कुछ ऐसी ही स्थिति का सामना करना पडेगा.भाजपा के लिये अपने गढों को बचाने का दबाब रहेगा वही काँग्रेस के लिये इन राज्यों में लौटते हुये आगामी लोक सभा में अपनी दावेदारी मजबूती से रखने का मौका मिलेगा.हिन्दीभाषी राज्यों में दोनों राष्ट्रीय पार्टी आमने सामने होती है,इसलिये दोनों पार्टी के लिये २००९ के आम चुनावों से पहले इन राज्यों का चुनाव शक्ति परीक्षण के लिये अहम सिद्ध होगा.
भारतीय जनता पार्टी द्वारा गुजरात चुनाव के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किये जाने का फायदा गुजरात के चुनावों में तो देखने को मिला ही,साथ ही भाजपा ने इस घोषणा के साथ ही आगामी आम चुनाव के लिये अपनी चुनावी तैयारी शुरू कर दी.काँग्रेस के लिये फिर से अगले चुनाव के लिये प्रधानमंत्री पद के लिये अपने उम्मीदवार की घोषणा करना काफी मुश्किल काम होगा.मनमोहन सिंह को फिर से प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करना संभव नही.सोनिया गाँधी के २००४ के 'त्याग' के कारण वह भी इस पद की उम्मेदवार नही हो सकती है.पुराने काँग्रेसी नेताओं में अर्जुन सिंह,प्रणव मुखर्जी भी अब कही इस पद के लिये हाशिये पर चले गये हैं.युवा चेहरे के रूप में राहुल गाँधी ही एक ऐसे नेता नजर आते है,जिन्हे की इस पद के लिये काँग्रेस सामने ला सकती हैं.
देश में एक स्थिर और मजबूत सरकार ही आंतरिक और बाह्य समस्याओं से निपट सकती हैं.सरकार परमाणु करार के मुद्दे को एक बार छोड भी दे तो ऐसी स्थिति में वाम दल महँगाई और अन्य मुद्दों पर काँग्रेस को केंद्र में घेरेगी.सरकार में रहते हुये मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाने का दायित्व वाम दल कर रही हैं और आने वाले समय में भी करती रहेगी.ऐसी स्थिति में केंद्र में चल रही सरकार को कमजोर माना जायेगा और हो सके तो यह आने वाले चुनाव में एंटी इनकम्बेंसी का कारण बनेगा.
काँग्रेस के लिये नये साल में अपनी स्थिति मजबूत करने के ज्यादा अवसर हैं.अगर वह राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों में सही कदम उठाते हुये चुनाव जीतते जाये,तो वापस सत्ता में आने के अच्छे अवसर हैं.भाजपा के लिये अपने राज्यों की सत्ता बचाने की चुनौती के साथ साथ नये राज्यों में भी उपस्थिति दर्ज कराने की जरूरत हैं,तभी जाकर दिल्ली की सत्ता हाथ आयेगी.तीसरा मोर्चा भी नये साल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करेगा.
नया साल राष्ट्र को चहुँमुखी विकास की ओर ले चले.यही कामना हैं.