मंगलवार, 29 जनवरी 2008

मासूमों की जिंदगी

मुंबई में स्कूल बस में एल.पी.जी. सिलेंडर के फटने के कारण चार स्कूली बच्चों को अपने जान से हाथ धोना पडा.मेरठ में मिड-डे मील बनाते वक्त एक शिक्षा मित्र के साथ चार बच्चें आग से झुलसे.पाकिस्तान में आतंकियों के द्वारा दो सौ स्कूली बच्चों को अपनी बात मनवाने के लिये बंधक बनाना फिर छोडना .इन सभी खबरों में स्कूली बच्चे ही शिकार बने हैं.स्कूली बच्चों की सुरक्षा की जिम्मेदारी स्कूल प्रबंधन की बनती है,लेकिन इन सब मामलों में देखा गया हैं कि कहीं ना कहीं लापरवाही बरती गयी ,जिसकी कीमत या तो बच्चों को जान देकर चुकानी पडी या ये घटनायें मासूमों के मन-मस्तिष्क में जिंदगी भर का घाव दे गयी.
बच्चों को स्कूल ले जाने के लिये जिन वाहनों का प्रयोग किया जाता हैं वे स्कूलों के निजी वाहन होते है या ठेके पर स्कूल द्वारा लिये जाते हैं. स्कूलों का अपना वाहन होने के कारण दुर्घटना की कम संभावना रहती हैं.फिर भी इन वाहनों की समय समय पर जाँच होती रहनी चाहिये.घर से निकलने के बाद जितनी देर बच्चा स्कूल के लिये बाहर रहे तब तक स्कूल की जिम्मेदारी होती है,लेकिन आजकल स्कूल में ही बच्चों के द्वारा अपने सहपाठियों को गोली मारने की घटनायें अपने देश में भी घट रही हैं.यह एक चिंता जनक विषय हैं.स्कूल प्रबंधन भी ऐसी घटनाओं के समय मामले की लीपापोती में जुट जाता हैं.
सरकारी योजनायें भी बच्चों के स्कूली जीवन में नयी नयी तरह की समस्या लाने का काम कर रही हैं. मिड-डे मील योजना के तहत मेरठ में हुयी दुर्घटना से बच्चों के झुलसने की घटना भी कम ह्रृदयविदारक नहीं हैं.बच्चे स्कूल पढने के लिये जाते हैं ना कि भोजन बनाने के लिये. इससे पहले भी इसी मिड-डे मील को किसी निम्न जाति की महिला द्वारा बनाये जाने पर बच्चों द्वारा खाने से इंकार करने पर कहीं ना कहीं इन बच्चों में जाति का जहर घोला जा रहा हैं.
पाकिस्तान में पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत की एक इलाके में पूरे स्कूली बच्चों को बंधक बनाकर छोडने की घटना भी इस ओर इशारा करती हैं कि स्कूली बच्चों को आसानी से निशाना बनाया जा सकता हैं.वैसे भी बच्चों की अपहरण की घटना को ज्यादातर स्कूल से आते या जाते वक्त ही अंजाम दिया जाता हैं.ऐसे में स्कूल प्रबंधन ज्यादातर अपना पल्ला झाडने का ही काम करती हैं,जबकि ऐसा नही होना चाहिये.महानगरों में वैसे भी माता-पिता दोनों काम पर जाते हैं जिस कारण भी बच्चों को ज्यादा एटेंशन नहीं दे पाते हैं,जिस कारण भी तरह तरह की घटनाएँ घटती रहती हैं.
स्कूल जाने की उम्र में ही बच्चों को उपरोक्त किसी घटना से दो-चार होना पडे,तो यह उनके मानसिक विकास के लिये ठीक नही हैं.इसलिये हमें चाहिये कि आज के बच्चों को ज्यादा से ज्यादा सुरक्षा मुहैया करवाया जायें,स्कूल प्रबंधन भी समय समय पर ऐसे कदम उठायें जिससे कि बच्चों की सुरक्षा में कहीं चूक ना हो ताकि वे भी हँसते खेलते हुये अपने स्कूली जीवन को जीयें.साथ ही ऐसे सामाजिक और नैतिक मूल्यों का भी पाठ पढायें कि आगे चलकर वे भी एक आदर्श नागरिक बन सके.

शनिवार, 26 जनवरी 2008

शेर ही टिकते हैं शेयर बाजार में

नये साल में मुंबई शेयर बाजार के सूचकांक ने जिस तरह से २१ हजार की ऊँचाई को छुआ,उसी तरह इस सोमवार और मंगलवार को भारी गिरावट दिखा छोटे निवेशकों का दो दिनों में दस लाख करोड का नुकसान करा दिया. वैसे भी यह बात समझ नही आती हैं कि छोटा निवेशक जब इस लालच में बाजार में पैसा लगाने जाता हैं कि उसका पैसा चंद दिनों में दुगुना हो जायेगा.तो उसे इस बात की समझ नही रहती हैं कि यह आधा भी हो सकता हैं.शेयर बाजार कोई जादुई जगह नही हैं जहाँ पैसा रातों रात जेनेरेट होता हैं और सुबह जब बाजार खुलता है तो ये निवेशक उसे लेकर चलते बनेपैसा तो उतना ही रहता हैं, यह सिर्फ एक हाथ से दूसरे हाथ में चला जाता हैं.इसमें पहला वाला हाथ भी आपका हो सकता है और दूसरा वाला भी.
आजकल हर कोई नया व्यक्ति लाल-पीले अखबार और बिजनेस चैनलों को देखकर कुछ दिन में ही अपने को शेयर बाजार का एक्सपर्ट समझने लगता हैं.साथ ही साथ लोगों के मुँह से यह सुनकर कि फलाँ का पैसा दो दिन में दुगुना हो गया यह सुनकर बाज़ार में पैसा लगाने चला आता हैं.शेयर बाजार नें शुरूआती दिन में जहाँ गिरा वहीं सप्ताह कें अंत में ह्ज़ार अंक ऊपर भी तो गया.यहाँ बाज़ार गिरता देख काफी छोटे निवेशक तो अपना पैसा निकाल चुके होंगे.बस यही पर वे मात खा जाते हैं.बाजार गिरता देख बडे बडे खिलाडी पैसा लगाकर पैसा बनाने का काम करते हैं.यही छोटे और नये निवेशक धीरज नही रख पाते है और हडबडी में निवेश किये पैसे को गँवा बैठते हैं.
भारतीय अर्थव्यवस्था के फंडामेंटल्स सही होने की दुहाई प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री देते रहे,लेकिन लोगों को सिर्फ अपने पैसे दुगुने होने से मतलब रहता हैं. निवेशक वह है जो पैसा लगाये और भूल जाये.कम से कम एक तिमाही का समय तो दे,यहाँ तो पैसा लगाया और नियम से प्रतिदिन उस शेयर का दाम देखने चला जाता है.जो कि सही नही हैं.इन्हें स्पेकटेटर कहा जाता हैं जो कि देखे और लपक पडे.नुकसान भी इन्हें ही उठाना पडता हैं.अतः इस बाजार में बडे से बडे खिलाडी भी धोखा खा जाते हैं.नये निवेशकों की बिसात ही क्या हैं? इसलिये इस बाजार से दूर ही रहना ज्यादा सही हैं.जो इस क्षेत्र में माहिर हैं वही इसे ब्लीड होता हुआ देख सकते हैं और साथ ही इस घाव को भरता भी देखते हैं.यहाँ तो शेर ही खून बहाता है और उसका मजा भी उठाता हैं.

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

आई.पी.एल.के लिये भी तो खिलाडी चाहिये

वर्त्तमान ऑस्ट्रेलिया दौरे के लिये वन-डे टीम का चयन किया गया तो उसमें दो वरिष्ठ खिलाडी को नहीं चुना गया.राहुल द्रविड और सौरव गांगुली की जगह नये खिलाडियों को मौका दिया गया.गांगुली को खराब फील्डिंग के कारण निकाला जा रहा हैं जब कि राहुल द्रविड जब टेस्ट में ही इतनी गेंद ले रहे हैं रन बनाने के लिये तो फिर वन-डे में क्या वे खाक रन बना पायेंगे.इसी बाच तरह तरह कि अफवाह चली कि धोनीअपनी टीम में युवा खिलाडी चाहते थे. वेंकटेश प्रसाद के कहने पर ऐसा हुआ. टीम में सीनियर और जूनियर खिलाडियों के दो धडे बन गये हैं.तरह तरह के कयास लगाये जा रहे हैं.जब कि ऐसा कुछ नही हैं.
बी.सी.सी.आई. की मह्त्त्वाकांक्षी योजना 'इंडियन प्रीमीयर लीग' की शुरूआत अप्रैल महिने से होनी है,इसके लिये भी तो खिलाडी चाहिये.तो क्यों ना कुछ ऐसा किया जाये कि ये खिलाडी पूरी तरह से इस धनकुबेर प्रतिस्पर्धा में तन और मन से लग जाये,धन तो इनपर बरसेगा ही साथ ही साथ बी.सी.सी आई. के भी वारे-न्यारे हो जायेंगे.यह एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा हैं.
दादा और द्रविड को वन-डे से आराम देकर ट्वेंटी-२० में अपने जौहर दिखाने का मौका दे रही हैं बी.सी.सी.आई. यहाँ आराम का मतलब संन्यास ले लेने से हैं.इसलिये अगले दिन ही अखबारों में यह खबर दिखायी दी कि इन खिलाडियों को ऑइकॉन खिलाडी के रूप में देखा जायेगा.अब तो कुछ दिनों बाद इन खिलाडियों की बोली लगने वली हैं.अब खिलाडी भी बिकेंगे. बोर्ड का सिर्फ एक ही मकसद हैं किसी तरह अपनी तिजोरी भरना.टीमें तो बिक ही चुकी हैं,अब खिलाडी बिकेंगे.
आई.सी.एल. और आई.पी.एल. सरीखी प्रतियोगिताओं के शुरू होने के बाद जो अंतर्राष्ट्रीय खिलाडी संन्यास ले लेता है,उसके तत्काल खेलने और अधिक से अधिक पैसा बनाने की चाह तो पूरी हो जाती हैं लेकिन जो खिलाडी अपने देश की तरफ से कुछ दिन और खेलना चाहता है,उसे अपने कैरियर के ढलान पर वैसा ही प्रदर्शन करना पडेगा जैसा कि वो अपने सुनहरे दौर में किया करता था.सब बढती प्रतिस्पर्धा का नतीजा हैं.
ऐसी स्थिति में क्रिकेट में काफी दिनों से चले आ रहे कहावत का भी कोई मायने नहीं रह जायेंगे- फॉर्म इस टेम्पररी,क्लास इज पर्मानेंट. खराब फॉर्म तो क्लास दिखाने इन लीगों में शामिल हो पैसा बनाइये ना कि सेलेक्टरों के लिये सिरदर्द बनिये.देश के लिये तो आपने खेला ही अब कुछ दिनों के लिये इन धनकुबेरों के लिये खेलिये.

गुरुवार, 24 जनवरी 2008

गोविन्दा का थप्पड

अशोक चक्रधरजी ने गोविंदा के थप्पड पर एक कुंडली लिखी और जिस दिन लिखी उसी दिन दो कार्यक्रमों में उसे सुनाया. कुंडली मतलब जन्मकुंडली नहीं बल्कि जिस शब्द से कविता शुरू की जाती है,उसी शब्द पर आकर खत्म हो जाती हैं. इस छोटी कविता का अपना भाव हैं. यह कुछ इस प्रकार से थी -
कुर्सी दर्शक से हिली, थप्पड़ मारा एक,टीवी ने तकनीक से, थप्पड़ किए अनेक।थप्पड़ किए अनेक, तैश में थे गोविन्दा,राजनीति में खेल चल पड़ा निन्दा-निन्दा।चक्र सुदर्शन, अगर रोकनी मातमपुर्सी,क्षमा मांग ले, वरना हिल जाएगी कुर्सी।
इस कविता के माध्यम से मीडीया पर भी निशाना साधा. खैर बात गोविन्दा की हो रही है, आखिर क्यों एक आम जनता को थप्पड मारा गोविन्दा ने? यह वही आम जनता हैं जिसके सामने चुनाव के वक्त हाथ जोडकर वोट देने की बात करते हैं. यह वही जनता हैं जो उनकी फिल्मों को सफल करवाती हैं तो यह कहते हुये नही अघाते है कि मुझे दर्शकों का ढेर सारा प्यार मिला. थप्पड मारने के दो दिन बाद जब थप्पड खाने वाला मीडिया के सामने आया तो गोविन्दा ने भी अपने बयान को सही साबित करने के लिये दो जूनियर आर्टिस्ट को समने खडा कर दिया.इससे तो एक बात स्पष्ट होती है कि अपनी गलती पर पर्दा करने के लिये पर्दे से ढँकी दो लड्कियों की मदद लेनी पडी.मीडिया द्वारा यह पूछने पर कि आप उनसे माफी माँगेगे तो जवाब था मैं एक थप्पड और मारता हूँ. जब बात इस हद तक बढ चुकी है तो गोविन्दा कैसे माफी माँग ले.
एक बार फिर से कमबैक करने वाले गोविन्दा का अगर यही हाल रहा तो फिल्मों में तो किसी तरह पारी सँभल जायेगी लेकिन राजनीति में ऐसा नही होता हैं.जब यही आम जनता वोट रूपी ताकत का एह्सास करवाएगी तब जाकर पता चलेगा अगर माफी माँग लेते तो ज्यादा अच्छा होता.वैसे भी उनके लोकसभा क्षेत्र में ऐसे होर्डिंग लगे है कि हमारे क्षेत के सांसद गोविन्दा आहूजा लापता हैं उनका पता बताने वाले को इनाम दिया जायेगा. संसद में भी उनकी उपस्थिति काफी कम हैं ऐसी स्थिति में क्या वो अपने फिल्मी कैरियर और राजनीतिक कैरियर से न्याय कर पा रहे हैं? नहीं. दर्शक अभी भी गोविन्दा को एक एक्टर के रूप में ही जानता हैं,अगर वहाँ भी अपनी इमेज में बट्टा लग्वाते रहे तो किसी भी कुर्सी के लायक वो नही रह जायेंगे.

बुधवार, 23 जनवरी 2008

टी.आर.पी. काल में रामायण

एनडीटीवी इमैजिन चैनल के लांच के साथ ही एक बार फिर से भारतीय दर्शकों को फिर से "रामायण" सीरियल देखने का मौका मिला. एक नये कलेवर और नये स्टारकास्ट के साथ रामायण का पहला एपिसोड देखने के वक्त आज से बीस साल पहले रामानंद सागर द्वारा बनाये गये रामायण की याद आना स्वाभाविक है और साथ ही तुलना करना भी. उस वक्त सिर्फ दूरदर्शन चैनल था और रविवार की सुबह सभी काम को छोड सपरिवार रामायण सीरियल देखने का एक अलग ही आनंद था.
पिछले एक महीने में जेनेरल इंटरटेनमेंट चैनल कैटेगरी में जी समूह का 'जी नेक्स्ट',आई.एन.एक्स ग्रुप का 'नाइन एक्स' और अब एनडीटीवी का 'इमैजिन' चैनल लांच हुआ हैं, इन तीनों चैनलों में मुख्य रूप से वही प्रोग्राम आयेंगे, जो कि आज कल दर्शकों की पसंद के माने जाते हैं जैसे फैमिली ड्रामा, रियलिटी शो आदि. लेकिन यही इमैजिन चैनल के सीईओ समीर नायर ने एक बार फिर से भारतीय दर्शकों के सामने एक बार फिर से पौराणिक कथा को पेश कर अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया हैं.यह एक कार्यक्रम ही इन तीन चैनलों में इमैजिन को अलग पहचान दिलवा रहा हैं.
आजतक भारतीय चैनल पर अगर सबसे ज्यादा टी.आर.पी. अगर किसी सीरियल ने बटोरी है तो वह रामायण सीरियल ही है.इसी बात का ध्यान रखते हुये एकबार फिर से रामायण सीरियल को पर्दे पर लाने की जिम्मेदारी सागर आर्टस को ही मिली.अभी भी सागर आर्टस सब से ज्यादा देखे जाने वाले चैनल दूरदर्शन के लिये ही कार्यक्रम बनाने के लिये इच्छुक था,लेकिन समीर नायर के रामायण बनाने के प्रस्ताव को टाल नही सका और जिसकी परिणिति महानगरों के दर्शकों के लिये एक नये रामायण के साथ आयी. इस बार की रामायण में पिछले बार के रामायण से कुछ खास अंतर तो देखने को नही मिलेगा, लेकिनइस बार की रामायण में पिछले बार के रामायण की कहानी से कुछ खास अंतर तो देखने को नही मिलेगा, लेकिन नयी तकनीक के उपयोग से इसे और भी भव्य बनाया गया हैं.
पिछले रामायण की एक दो चीजें खोजने का प्रयास हमने किया तो वो नही मिली.एक तो कलाकारों के असली नाम जो कि बचपन में हम बच्चें याद करना या यूँ कहे कि एपिसोड के अंत में आने वाले कलाकारों का नाम बताने की होड लगी रहती थी और दूसरा स्वाभिकता. कलाकारों के अभिनय में आनंद सागर ने रामानंद सागर वाला काम नही निकलवाया.वैसे इस बार राम का किरदार गुरमीत चौधरी और सीता का किरदार देबिना बनर्जी ने निभाया है.
आज के दिन फिल्म जगत में जहाँ रीमेक बनाने की होड चल रही हैं वही टीवी में भी अपने जमाने के सबसे लोकप्रिय धारावाहिक को फिर से प्रस्तुत करना अनोखी पहल हैं.ऐसा नही है कि धार्मिक सीरियलों का जमाना लद गया हैं, अभी भी अगर सही तरीके से बनाया जाये तो इसे देखने वालों की संख्या बधेगी ही. सिर्फ स्पेशल एफेक्टस के जरिये सफलता की कामना करना बेवकूफी हैं.
भारतीय संस्कृति की यह कहानी जीवन में ऊँचे नैतिक मूल्यों और आदर्शों को स्थापित करने की सीख देती है, क्या यह आज परिवार को तोडने वाले सीरियलों पर भारी पडेगा? यह आने वाले समय में टी.आर.पी से ही पता चल पाएगा.

शुक्रवार, 11 जनवरी 2008

टाटा का 'कार'नामा

बात सन १९८७ की है,जब मैं अपनी नानी के यहाँ जा रहा था.चाचा ने मारूति की ओमनी गाडी नयी नयी ली थी.उसी से सपरिवार हम जा रहे थे.बातों ही बातों में मैंने गाडी की कीमत का अनुमान दस हजार रूपये लगाया,तो यह उत्तर आया कि अगर यह इतनी सस्ती होती तो सडक पर चलने की जगह नहीं होती.उस समय गाडी की कीमत एक लाख रूपये थी.जो कि मेरे कल्पना से बाहर थी.
आज फिर हम उसी बीस साल पहले वाली स्थिति में हैं,एक लाख की गाडी फिर से सडक पर आने वाली हैं,लेकिन एक लाख रूपया आज दूसरे अंदाज में चौंकाता हैं.रतन टाटा ने एक परिवार को स्कूटर पर जाता देखकर इस कार की कल्पना की और चार साल बाद अपने वादे को निभाते हुये एक लाख की कीमत में ही कार की लाँचिंग की.३३ हॉर्सपावर और ६२४ सीसी इंजन वाली यह "नैनो" कार भारत की अब तक सबसे सस्ती कार मारूति ८०० के मुकाबले भीतर से २१ फीसदी बडी होगी वही बाहर से ८ फीसदी छोटी होगी. एक लीटर में बीस किलोमीटर का दावा करने वाली यह गाडी फुल फ्रंटल टेस्ट से भी गुजर चुकी हैं,जो कि अभी भारत की सडक पर चलने वाली कई गाडी इस टेस्ट से नही गुजरी हैं.
कार से प्रदूषण कम हो इसका भी ध्यान रखा गया हैं.यह गाडी भारत-थ्री और यूरो-फॉर मानकों पर खडी उतरती हैं,इसका मतलब भविष्य को ध्यान में रख कर बनाया गया हैं क्योंकि भारत में अभी तक यूरो-फॉर मानक की गाडियाँ अभी तक बाजार में नही आयी हैं.इसी पर लाँच करते वक्त रतन टाटा ने पचौरी साहब और सुनीता नारायण के चैन से सोने की बात की. लेकिन एक साल में ढाई लाख यूनिट सडकों पर उतारने का लक्ष्य प्रदूषण के साथ साथ सडक पर वाहनों को रेंगने वाली स्थिति में ला देगा.
भारत की राजधानी दिल्ली में इस वक्त जहाँ प्रगति मैदान में नैनो गाडी की लाँचिंग हुयी वही उसके बाहर सडकों पर दो-दो घंटे का जाम लोगों को झेलना पड रहा हैं. सात करोड दुपहिया वाहनों और एक करोड निजी कार वाले देश में अभी ही सडकों पर जाम की स्थिति आम हैं.इसका एकमात्र कारण सरकार द्वारा सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पर ध्यान नही दिया जाना हैं.ऐसी स्थिति में लोग निजी वाहन की व्यवस्था ना करे तो और क्या करे.अब नैनो के सितंबर माह से आने के बाद दिल्ली में तो स्थिति बिगडने वाली ही हैं.अभी भी दिल्ली में अकेले अन्य तीन महानगरों से भी ज्यादा वाहन हैं.
नैनो की लाँचिंग भारतीय ऑटोमोबाइल उद्योग के लिये एक मील का पत्थर साबित होगी.१९८० के शुरूआती दशक में जहाँ भारत में कार उत्पादन की संभावनायें तलाशी जा रही थी वहीं आज जैगुआर और लैंडरोवर जैसी गाडी भारतीय कंपनी के ब्रांड के रूप में निकलेगी.भारतीय उद्यमिता की यह नायाब मिसाल है कि आज हम विश्व को सबसे सस्ती गाडी देने में सफल हुये हैं.चीन से उत्पादित होने वाली सबसे सस्ती गाडी से आधे मूल्य पर यह गाडी अब लोगों को मिल सकेगी.
तीस हजार करोड रूपये वाली कंपनी टाटा मोटर्स ने भले ही इस गाडी की मनक कीमत अभी एक लाख रूपये रखे हैं,लेकिन कितने दिनों तक इस कीमत पर कायम रहेगी,इस पर बोलने को कोई तैयार नही हैं, साथ ही इस गाडी पर कंपनी को कितना मुनाफा होगा,यह भी तय नहीं हैं.लेकिन मध्यम वर्ग को इन सबसे क्या लेना देना,अब तो कुछ ही दिनों में उनका भी कार रखने का सपना पूरा होने वाला हैं,क्यों न पेट्रोल और डीजल की बढती कीमतों के बीच यह उनके घर के आगे एक नुमाइश की वस्तु ही बनकर खडी हो.

गुरुवार, 10 जनवरी 2008

माइंड गेम से हारी टीम इंडिया

"इंडिया विन सिडनी टेस्ट" शीर्षक वाली खबर द टाइम्स ऑफ इंडिया में देखकर अचंभा हुआ.एक बार तो सहसा विश्वास ही नही हुआ,ये आखिर हुआ कैसे? क्या यह मैच भारत को दे दिया गया या इस शीर्षक के कोई और मायने हैं.हरभजन सिंह पर तीन टेस्ट मैचों की पाबंदी के बाद भारतीय मीडिया ने तो इसे भारत की प्रतिष्ठा का विषय ही बना दिया. देश के सर्वश्रेष्ठ कहे जाने वाले चैनलों के लिये अपने प्राइम टाइम का पूरा समय भी दिया जाना कम लग रहा था.अगर अखबार और टेलीविजन चैनलों की बात करे तो दोनों माध्यमों ने अंपायर स्टीव बकनर को लताडने में कोई कोर कसर नहीं छोडी.इतना सब होने के बाद भी हम कहे कि हमने सिडनी टेस्ट जीता हैं तो यह सरासर गलत होगा.
टेस्ट मैच के दौरान पहली पारी में भारतीय टीम द्वारा बढत लेना जब ऑस्ट्रेलियाई टीम को नागावार गुजरने लगा तब उसी समय दुनिया की सर्वश्रेष्ठ टीम नें 'माइंड गेम' खेलना शुरू किया और एक वक्त ड्रॉ के तरफ जा रहे मैच को अपने पक्ष में करने में कामयाब रही.इस बार इस माइंड गेम का शिकार बनाया हरभजन सिंह को और वो इसमें फँस भी गये.हरभजन सिंह ने दूसरी छोड पर बैटिंग कर रहे सचिन से कोई सीख लेने की कोशिश नही की.सचिन को भी कितनी बार स्लेजिंग का सामना करना पडा हैं,लेकिन उसका जवाब हमेशा अपने बल्ले से दिया हैं न कि पलट कर जवाब देकर.हरभजन के बॉडी लैंग्वेज से यही लगता हैं कि साइमंडस की बात का वह जवाब नही देते तो वर्बल मैच तो वे वही हार जाते.पलट कर जवाब देने की कोई जरूरत नहीं थी. ऑस्ट्रेलियाई अपने चाल में कामयाब हो गये.
अगला टेस्ट पर्थ में खेला जाना हैं और उस मैच में भारत को यह साबित करना ही होगा कि सिडनी में अगर अंपायरिंग डिशीजन गलत नहीं होते तो मैच का नतीजा कुछ और ही होता.पर्थ की उछाल भरी पिच पर भारतीय बल्लेबाजों की अग्नि-परीक्षा होने वाली हैं.जीत से नीचे कुछ भी परिणाम भारतीयों के लिये अपने को साबित करने के लिये नाकाफी होगा.क्योंकि जीतने वाली ही टीम नियम तय करती है.सिडनी में भारत की हार के लिये सिर्फ बकनर और बेंसन को ही जिम्मेदार ठहराना ठीक नही होगा. दूसरी पारी में भारतीय बल्लेबाजों के लिये 'तू चल मैं आया' वाली स्थिति हो गयी थी. मैच को आसानी से ड्रॉ कराया जा सकता था,लेकिन अब २-० की बढत के साथ ऑस्ट्रेलिया को मनोवैज्ञानिक बढत मिल गयी हुई हैं,इसलिए भारतीय टीम की राह अब भी आसान नही हैं.

शुक्रवार, 4 जनवरी 2008

सबसे पहले हँसा कौन?

स्टार वन के सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम 'द ग्रेट इंडियन लाफ्टर चैलेंज पार्ट-तीन'के दौरान कुलदीप दुबे नाम के प्रतिभागी ने इतिहास के किताब में 'लाफ्टर आंदोलन'की बात कही थी,उसी दौरान एक मैडम ने अपने क्लास में छात्रों से पूछा कि हँसी का आविष्कार किसने किया? तो छात्र ने जवाब दिया आविष्कार का तो पता नही लेकिन इसका सबसे ज्यादा उपयोग नवजोत सिंह सिद्धू ने किया .इस बात पर हँसी तो आयी,लेकिन हँसी आयी कहाँ से? सबसे पहले किसने इसका उपयोग किया था? यह प्रश्न मेरे दिमाग में घूमता रहा.
अंततः इस बात का पता चल ही गया कि हँसी का आविष्कार हम मानवों ने नही बल्कि हमारे पूर्वजों यानि लंगूरों की एक प्रजाति ऑरंगउटन ने की. इसका पता अंतर्राष्ट्रीय शोधार्थियों ने चार विभिन्न जगह पर पच्चीस ऑरंगउटन पर किये गये शोध के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला.पोर्टसमाउथ यूनिवर्सिटी की शोधार्थी डॉ. मरियाना डेविला रॉस के अनुसार मानव में फेसियल मिमिक्री करने की क्षमता से पहले यह लंगूरों में आ चुकी थी.
शोध में यह भी पाया गया कि अपने साथी कि नकल करने में यह ऑरंगउटन आधे सेकेंड का वक़्त लेते हैं.जो कि हमारे द्वारा लिये गये समय से भी कम है,तो सोच सकते है कि हँसने के मामले मे भी हम फिसड्डी ही हैं.अगर सिद्धु साहब कि बात कि जाये तो वे भी एक सेकेंड का तो वक्त ले ही लेते हैं.
ये तो रही हँसी की बात.लेकिन आपने कभी सोचा हैं कि हमारे जिंदगी में हँसी नही रहे तो क्या होगा,दवाब के कारण हम अपना कोई भी ठीक तरीके से करने में सक्षम नहीं हो सकेंगे,इसलिये तो हिन्दी के मनोरंजन चैनलों के बाद समाचार चैनलों ने भी हँसी के कार्यक्रमों के लिये स्पेशल बुलेटिन ही बना दिये हैं.वो अलग बात हैं कि समाचार चैनलों पर मनोरंजन चैनलों पर दिखाये जाने वाले ही कार्यक्रमों के फुटेज के बीच एंकर की उपस्थिति दर्ज कराकर इसे अपना बुलेटिन बना लिया जाता हैं.हँसी का ओवरडोज होने के कारण अब यह भी प्रयोग भी अब बोरिंग लगने लगा हैं.कुछ नयापन हो तो कोई बात भी,लेकिन समाचार चैनलों ने तो कुछ नया ना करने की कसम खा रखी हैं.

मंगलवार, 1 जनवरी 2008

भारत को सिडनी में डालना होगा जीत का सीड

नये वर्ष के आगमन पर सिडनी का आकाश रंग-बिरंगी आतिशबाजियों से इस कदर नहा गया कि देखने वालों के लिये यह मनोरम नजारा उनकी स्मृति में समा गया होगा.टेलीविजन के माध्यम से देश-विदेश के करोडों लोगों ने यह नजारा देखा होगा.इस नजारे को देखने के लिये भारतीय क्रिकेट टीम सिडनी में ही मौजूद थी,जो कि साल के दूसरे दिन पिछले साल की मेलबर्न टेस्ट की हार को भुलाते हुये नये साल में ऑस्ट्रेलिया के लिये सामने नयी चुनौती रखेगा.
भारतीय टीम के प्रदर्शन को देखते हुये ऐसा लगता हैं कि २००३ के दौरे से पहले एक क्रिकेट अधिकारी ने जो परिणामों के लिये भविष्यवाणी की थी ,वह इस बार सही साबित होगी. भारतीय टीम को एक बार फिर से इतने अहम दौरे से पहले अभ्यास मैचों के नाम पर एक वर्षा बाधित मैच खेलना पडा जो की काफी नही था.मेलबर्न टेस्ट के पहले दिन जब भारतीय टीम ने नौ विकेट चटकाये थे तब तो ऐसा लग रहा था कि यह मुकाबला पाँचवे दिन तक जायेगा.लेकिन भारतीय बल्लेबाजों ने दोनों पारियों में महज दो सौ रन का भी ऑकडा नही छुआ और मैच का नतीजा चौथे दिन ही आ गया.गेंदबाजों ने अपना कमाल तो दिखाया लेकिन बल्लेबाज फिसड्डी साबित हुये.सिर्फ एक अर्ध-शतक देखने को मिला वह भी तेंदुलकर के बल्ले से.
सिडनी के मैच से पहले भारतीय टीम के सामने ओपनिंग बल्लेबाज की समस्या को सुलझाना हैं.सेहवाग को मौका दिये जाने की स्थिति में गाज युवराज पर ही गिरेगी.एक विशेषज्ञ सलामी बल्लेबाज से आगाज करने के बजाय दो सलामी बल्लेबाज से ओपनिंग कराना ज्यादा ठीक होगा.रक्षात्मक बल्लेबाजी करके तो राहुल द्रविड ने तो पहले ही टीम को बैकफुट पर धकेल दिया था.सेहवाग के बल्ले से अगर सिडनी में रनों की बरसात हो जाती हैं तो ऐसी स्थिति में मध्यक्रम भी काफी अच्छा करके दिखा सकता हैं.
गेंदबाजी में अच्छा करने वाले जहीर के चोटिल होने के कारण तेज अनुभवी गेंदबाज की कमी खलेगी. मेलबर्न टेस्ट में दो स्पिनरों के साथ खेलना एक तरह से सही ही निर्णय रहा .इस तरह दोनों गेंदबाज को अनुभव तो मिला.कुंबले व हरभजन की जोडी आने वाले मैचों में भारत के लिये मैच जीताने वाली भी जोडी भी बन सकती हैं.जहाँ तक तेज गेंदबाजी का सवाल हैं,इरफान और आर.पी. पर फॉर्म में चल रहे मैथ्यू हेडेन और फिल जैक्स का विकेट जल्द से जल्द निकल कर देने की चुनौती होगी. वही हरभजन के लिये रिकी का विकेट एक बार फिर से प्राइज विकेट साबित हो सकता हैं.
सिडनी में भारत अगर मैच ड्रॉ कराने में भी सफल होता है,तो यह पिछली हार से निकलने का एक सही रास्ता होगा.पिछली बार भी एडिलेड टेस्ट में भारत की जीत के बारे में किसने सोचा था.भारतीय खिलाडियों को भी एक टीम के रूप में खेलते हुये एक सकारात्मक सोच के साथ मैच में उतरना पडेगा.

नये वर्ष की नयी चुनौतियाँ

नव-वर्ष के आगमन के साथ ही भारतीय राजनीति को नयी चुनौतियों का सामना करना पडेगा.बीते साल या यूँ कहे तो बीते सप्ताह में दो राज्यों के विधान-सभा के परिणाम भाजपा के पक्ष में जाने के साथ केंद्र की राजनीति में काँग्रेस को अपनी स्थिति और खराब होती हुयी दिखायी दे रही है.भारत-अमेरिकी परमाणु करार पर पहले से ही वाम दलों का दबाब झेल रही काँग्रेस इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में ही डाल कर रखना चाहेगी.भाजपा और वाम दलों के लिये एक कमजोर काँग्रेस ही उनकी राजनीति को केंद्र स्तर पर और मजबूत करेगी.इस साल सबसे पहले कर्नाटक में होने वाले विधान-सभा चुनाव में काँग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टी अपने बल पर ही वहाँ की सत्ता में आना चाहेगी.यही से दोनों पार्टी का राजनीतिक साल निर्धारित होगा.
भाजपा के लिये जहाँ मध्य प्रदेश,राजस्थान और छत्तीसगढ में एंटी इनकम्बेंसी का सामना करना पडेगा ,वही दिल्ली में काँग्रेस को भी कुछ ऐसी ही स्थिति का सामना करना पडेगा.भाजपा के लिये अपने गढों को बचाने का दबाब रहेगा वही काँग्रेस के लिये इन राज्यों में लौटते हुये आगामी लोक सभा में अपनी दावेदारी मजबूती से रखने का मौका मिलेगा.हिन्दीभाषी राज्यों में दोनों राष्ट्रीय पार्टी आमने सामने होती है,इसलिये दोनों पार्टी के लिये २००९ के आम चुनावों से पहले इन राज्यों का चुनाव शक्ति परीक्षण के लिये अहम सिद्ध होगा.
भारतीय जनता पार्टी द्वारा गुजरात चुनाव के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किये जाने का फायदा गुजरात के चुनावों में तो देखने को मिला ही,साथ ही भाजपा ने इस घोषणा के साथ ही आगामी आम चुनाव के लिये अपनी चुनावी तैयारी शुरू कर दी.काँग्रेस के लिये फिर से अगले चुनाव के लिये प्रधानमंत्री पद के लिये अपने उम्मीदवार की घोषणा करना काफी मुश्किल काम होगा.मनमोहन सिंह को फिर से प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करना संभव नही.सोनिया गाँधी के २००४ के 'त्याग' के कारण वह भी इस पद की उम्मेदवार नही हो सकती है.पुराने काँग्रेसी नेताओं में अर्जुन सिंह,प्रणव मुखर्जी भी अब कही इस पद के लिये हाशिये पर चले गये हैं.युवा चेहरे के रूप में राहुल गाँधी ही एक ऐसे नेता नजर आते है,जिन्हे की इस पद के लिये काँग्रेस सामने ला सकती हैं.
देश में एक स्थिर और मजबूत सरकार ही आंतरिक और बाह्य समस्याओं से निपट सकती हैं.सरकार परमाणु करार के मुद्दे को एक बार छोड भी दे तो ऐसी स्थिति में वाम दल महँगाई और अन्य मुद्दों पर काँग्रेस को केंद्र में घेरेगी.सरकार में रहते हुये मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाने का दायित्व वाम दल कर रही हैं और आने वाले समय में भी करती रहेगी.ऐसी स्थिति में केंद्र में चल रही सरकार को कमजोर माना जायेगा और हो सके तो यह आने वाले चुनाव में एंटी इनकम्बेंसी का कारण बनेगा.
काँग्रेस के लिये नये साल में अपनी स्थिति मजबूत करने के ज्यादा अवसर हैं.अगर वह राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों में सही कदम उठाते हुये चुनाव जीतते जाये,तो वापस सत्ता में आने के अच्छे अवसर हैं.भाजपा के लिये अपने राज्यों की सत्ता बचाने की चुनौती के साथ साथ नये राज्यों में भी उपस्थिति दर्ज कराने की जरूरत हैं,तभी जाकर दिल्ली की सत्ता हाथ आयेगी.तीसरा मोर्चा भी नये साल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करेगा.
नया साल राष्ट्र को चहुँमुखी विकास की ओर ले चले.यही कामना हैं.