गुरुवार, 6 मार्च 2008

हमारे वक्त में 'बहरूप' के बहरूपिये

ये सब कुछ हमारे ही वक्त में होना था
वक्त को रूक जाना था थकी हुयी जंग की तरह
और कच्ची दीवारों पर लटके कैलेंडरों को
प्रधानमंत्री की फोटो बनकर रह जाना था
मेरे यारों हमारे वक्त का एहसास बस इतना ही ना रह जाए
कि हम धीरे धीरे मरने को ही जीना समझ बैठे थे
कि वक्त हमारी घडियों से नही हड्डियों के खुरने से नापा गया
ये गुरूड हमारे ही वक्त का होगा,
ये गुरूड हमारे ही वक्त को होना हैं.

मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में बहरूप ग्रुप की प्रस्तुति 'हमारे वक्त में' प्ले देखने गया, वही इन पंक्तियों से परिचय हुआ. काफी अच्छी लगी इसलिये इसे उधृत कर रहा हूँ.प्ले मीडिया पर था जिसके पहले ही दृश्य में नेपथ्य से राँची के आकाशवाणी केंद्र से पढा गया समाचार अंतिम समाचार था और फिर इन पंक्तियों को भी नेपथ्य से ही कहा गया.
पहले सीन मे इलेक्ट्रोनिक मीडिया की एक पत्रकार ने देश के गृहमंत्री का इंटरव्यू लिया और जाने के क्रम में उनका नाम स्पेलिंग के साथ पूछा. काश ये सिर्फ नाटक में हुआ रहता तो अच्छा था लेकिन सच मे ऐसा हुआ था.

मीडिया के दशा और दिशा पर नाटक ने काफी सटीकता के साथ प्रकाश डाला.शाहिद अनवर साहब की स्क्रिपटिंग और के.एस.राजेंद्रन साहब के निर्देशन में कलाकारों ने काफी अच्छा अभिनय कर नाटक में जान डाल दिया. केके और घावरी का अभिनय लोगों ने ज्यादा पसंद किया.कलाकारों द्वारा एक शब्द के गलत उच्चारण पर दर्शक दीर्घा में एक साहबान की टिप्पणी कि सारे नाटक का सत्यानाश कर डाला - निश्चय ही यह सोचने पर मजबूर करती है कि अब भी आपके द्वारा बोले गये एक एक शब्द की स्क्रूटनी की जाती हैं,ऐसे ही आप गलत बोलकर अपना काम नही चला सकते हैं.

बहरूप से मेरा जुडाव ज्यादा पुराना नहीं हैं. जे.एन.यू. में या मंडी हाउस के किसी ऑडिटोरियम में इस ग्रुप के नाटक को देखने का सिलसिला पिछले एक साल से ही हैं. एक दर्शक के रूप में ही जुडाव हैं.ऊपर लिखी गयी पंक्तियाँ अवतार सिंह साहब की हैं जो पाश नाम से पंजाबी में कवितायें लिखते थे.हमारे वक्त में इन बहरूप के बहरूपियों की यह प्रस्तुति समय के गुरूड को रेखांकित करती हैं जो अच्छा हैं और होना भी चाहिये.

कोई टिप्पणी नहीं: