गुरुवार, 27 मार्च 2008

हिन्दी खबरिया चैनलों की मानसिक दिवालिएपन की "वंदना"

अब कुछ दिन का और इंतजार ,खबरिया चैनलों के गड्ढे वाले समाचार की अपार सफलता के बाद दूसरे जूली-मटूकनाथ की खोज जारी हैं.सभी चैनल वालों ने अपने रिपोर्टरों को ऐसे ही एक जोडे की खोज के लिये अपने अपने शहर के विश्वविद्यलयों या कोचिंग संस्थानों के लिये भेज दिया हैं. प्रिंस के बाद वंदना के गिरने में समय का जो अंतराल हैं,उसी के अनुसार जूली की खोज जारी हैं. अगर नही मिल रही हैं तो रिपोर्टरों तुम्हारी खैर नही.

कल फिर से समाचार चैनल देखते वक्त उन्हीं परिस्थितियों का सामना करना पडा जो आज से दो साल पहले करना पडा था.सभी चैनल 'वंदना' को बोरवेल से वेल तरीके से निकालने में अपने चैनल की टीम को भेजे हुये थे.कैमरामैन से लेकर रिपोर्टर तक को घूम घूम कर प्रिंस का वाकया याद आ रहा था.क्या उतनी देर ही हमें जूझना पडेगा या कम ही देर में काम हो जायेगा बच्ची को बचाने का. इधर सभी न्यूज चैनलों के न्यूजरूम में बस एक ही बात ..देखो जब वो चैनल इस खबर से खेल रहा हैं तो हम क्यों नहीं. ऐसा करते करते अँग्रेजी के भी समाचार चैनल भी इसी खबर से खेलने में लग गये.

"टाइम्स नाउ" ने तो इस खबर को मीडिया हाइप बताकर कुछ चर्चा भी कर ली.लेकिन बाकी सभी चैनलों ने तो इस घटना का लाइव प्रस्तुतीकरण देना ही बेहत्तर समझा. बीच बीच में कुछ समझदार प्रस्तोता यह सवाल उठा देते कि इतने गहरे गड्ढे को ढँका क्यूँ नही गया. अबे होशियार एंकरों अगर उस बोरवेल का मुँह ढँका रहता तो तुम्हारा मुँह सत्ताइस घंटे के लिये कैसे खुलता.

प्रोड्यूसर से लेकर दूसरे बीट तक के सभी लोग खुश.चलो आज की तो हो गयी छुट्टी.आज के दिन वंदना ने बचा लिया,नही तो कहाँ से कोई कहानी बनकर आती. फिल्मी स्टाइल में पुराने फिल्मों का रीमेक बनने में कई दशक लग जाते हैं.वैसे ही समाचारों का रीमेक बन जायें तो बुरा नहीं हैं.लेकिन समाचार के साथ फिल्मों वाली बात नहीं हैं.समाचारों का उतना असर नहीं होता हैं.

हिन्दी खबरिया चैनल वाले अब कितना भी दर्शकों को बेवकूफ समझ ले लेकिन इस चक्कर में वे स्वयं ही कितनी बुरी तरीके से समाचारों से कटते जा रहे हैं,इसका उन्हें एह्सास तक नही हैं.अब तक सँभलने का काम नही हो रहा हैं,वह दिन दूर नहीं हैं जब समाचार चैनलों को चलाने का लाइसेंस देने वाली सरकार ही जब "कंटेंट कोड" लायेगी तो इसे प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ पर हमला मान लिया जायेगा.जितनी जल्दी से लाइसेंस मिले है उतनी जल्दी ही ब्लैक आउट होने का खतरा बना रहेगा. पूछना हैं तो "लाइव इंडिया" में काम करने वालो से पूछिए उनकी हालत तब कैसी हो गयी थी जब उमा खुराना स्टिंग के कारण चैनल का भविष्य ही अंधकारमय नजर आने लगा था.

अब भी वक्त हैं दर्शकों को बेवकूफ समझना बंद कर समाचार दिखाना शुरू करें,नही तो दूसरे को बेवकूफ समझते समझते कही बेवकूफी मे किसी दूसरे चैनल पर यह खबर नही चल जायें कि फलाँ चैनल अब "हिस्ट्री" हो गया हैं,क्योंकि उसकी न्यूजों की "डिस्कवरी" नेशनल ज्योग्राफी क्षेत्र में नही थी.

1 टिप्पणी:

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

आपने एक दम सही लिखा है गोयनका जी. ऐसा लगता है कि जैसे ही कोई सनसनीखेज लगने वाली घटना घटित होती है, चैनल के कर्ताधर्ताओं के चेहरे खिल उठते हैं, कि चलो ग्राहकी चमकी, और फिर वे उसे फींचने में जुट जाते हैं. वन्दना का बोरवेल में गिरना उनके लिए तो एक उत्सव ही था. मुझे याद आती है मन्नू भण्डारी की, जिन्होंने अपने प्रख्यात उपन्यास 'महाभोज' में ऐसी ही स्थिति का अंकन किया है.जब उन्होंने महाबोज लिखा तब ये चैनल-वैनल नहीं थे. अगर होते, तो मन्नू जी इनके महाभोज का चर्चा ज़रूर करती. कोई मरे, गिद्धों का तो महाभोज ही होता है. हमारे ये चैनल किसी गिद्ध से कम थोडे ही हैं.