शनिवार, 16 फ़रवरी 2008

मुंबई हमारी....क्यूँ भाई चाचा, हाँ भतीजा.

मुंबई और महाराष्ट्र के और इलाकों से उत्तर भारतीयों का पलायन होना जारी हैं.मुंबई से रेल से जुडे उत्तर भारत के प्रमुख शहर के स्टेशनों पर सैकडों की संख्या में भागकर वापस आए लोगों का यह कहना कि अपने यहाँ रूखा-सूखा ही क्यों ना मिले वही खाकर रह लेंगे, लेकिन वापस बंबई नहीं जायेंगे - यह अपने आप में एक दर्द को बयाँ करता हैं. यह दर्द हैं उनकी उस बेबसी का जिसमें उनकी राज्य की सरकारें अपने यहाँ दो वक्त की रोटी नहीं मुहैया करवा पा रही हैं और अगर दूसरे राज्य में जाकर अगर किसी तरह दो जून की रोटी मय्यसर होती हैं तो वहाँ के सियासतदाँ अपनी सियासत चमकाने के खातिर संविधान तक को बदलने की मांग करते हैं.
जी हाँ, बात हो रही हैं महाराष्ट्र में पिछले एक पखवाडे से चल रही उठा पटक करने वालों की. बात हो रही हैं राजनीति में अपनी पारी शुरू करने वाले राज ठाकरे की, जो कि अपने चाचा शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के राजनीतिक वारिस तो नही बन सके,लेकिन उनकी ही पुरानी नीति पर चलकर अपनी राजनीति को चमकाने का काम किया हैं.यही हैं राज की 'राजनीति'.
साठ के दशक में जहाँ बाल ठाकरे ने दक्षिण भारतीयों को खदेड कर अपनी राजनीति चमकाने का काम किया था,वही काम आज उनके भतीजे राज उत्तर भारतीयों को खदेडकर कर रहे हैं और काफी हद तक इस काम में उन्हें सफलता भी मिली हैं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के इस युग में काफी कम समय में राज ठाकरे को लोगों ने जान लिया.उनके इस दाँव से शिव सेना को अपने हाथ से मराठी मानुष,मी मुंबईकर का मुद्दा निकलता हुआ नजर आ रहा हैं. इसलिये तो 'सामना' में तरह तरह के आलेखों के द्वारा अपने बिखरते वोट बैंक को बचाने की कवायद दिन-प्रतिदिन की जा रही हैं.
महाराष्ट्र सरकार के द्वारा हिंसा के शुरूआती दिनों में अपने से कोई कदम नहीं उठाना भी उनकी इसी मानसिकता का परिचायक हैं.केंद्र सरकार के कहने पर ही कुछ कदम उठाये गये,लेकिन ये भी नाकाफी साबित हो रहे हैं.लोगों का पलायन जारी हैं,उनको एक नयी जिंदगी शुरू करने की मजबूरी एकाएक सामने आन पडी. जब अपने देश में ही इस तरह की स्थिति का सामना करना पडेगा तो फिर राष्ट्रीय एकता का क्या मतलब रह जायेगा.
इस तरह की राजनीति कर देश का कोई भला नहीं होने वाला हैं . क्षेत्रीयता,जातीयता,संप्रदायिकता और भाषावाद पर होने वाली राजनीति से किसी का भला नही होता हैं, भला होता हैं तो सिर्फ राजनेताओं का जो लोगों के मन में छिपी इस तरह की भावनाओं को उभारकर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने का काम करते हैं और पिसती हैं आम जनता . हाल की ही घटना की बात करे तो नासिक में मरने वाला पहला व्यक्ति महाराष्ट्रीयन ही था.क्या राज ठाकरे के पास इस बात का कुछ जवाब हैं,नहीं उन्हें तो अपनी राजनीति करने से मतलब हैं.
ऐसा भारत में कब तक चलेगा? इसका तो फिलवक्त कोई जवाब नही हैं,लेकिन राजनीति करने वालों के लिये तो ऐसा चले तो वो ही अच्छा हैं.हमारा क्या हैं? यूँ ही पिसते रहेंगे. तब तक चाचा के सुरों पर भतीजे को अपनी तान छेडने दिया ज़ायें.

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