मंगलवार, 1 जनवरी 2008

नये वर्ष की नयी चुनौतियाँ

नव-वर्ष के आगमन के साथ ही भारतीय राजनीति को नयी चुनौतियों का सामना करना पडेगा.बीते साल या यूँ कहे तो बीते सप्ताह में दो राज्यों के विधान-सभा के परिणाम भाजपा के पक्ष में जाने के साथ केंद्र की राजनीति में काँग्रेस को अपनी स्थिति और खराब होती हुयी दिखायी दे रही है.भारत-अमेरिकी परमाणु करार पर पहले से ही वाम दलों का दबाब झेल रही काँग्रेस इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में ही डाल कर रखना चाहेगी.भाजपा और वाम दलों के लिये एक कमजोर काँग्रेस ही उनकी राजनीति को केंद्र स्तर पर और मजबूत करेगी.इस साल सबसे पहले कर्नाटक में होने वाले विधान-सभा चुनाव में काँग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टी अपने बल पर ही वहाँ की सत्ता में आना चाहेगी.यही से दोनों पार्टी का राजनीतिक साल निर्धारित होगा.
भाजपा के लिये जहाँ मध्य प्रदेश,राजस्थान और छत्तीसगढ में एंटी इनकम्बेंसी का सामना करना पडेगा ,वही दिल्ली में काँग्रेस को भी कुछ ऐसी ही स्थिति का सामना करना पडेगा.भाजपा के लिये अपने गढों को बचाने का दबाब रहेगा वही काँग्रेस के लिये इन राज्यों में लौटते हुये आगामी लोक सभा में अपनी दावेदारी मजबूती से रखने का मौका मिलेगा.हिन्दीभाषी राज्यों में दोनों राष्ट्रीय पार्टी आमने सामने होती है,इसलिये दोनों पार्टी के लिये २००९ के आम चुनावों से पहले इन राज्यों का चुनाव शक्ति परीक्षण के लिये अहम सिद्ध होगा.
भारतीय जनता पार्टी द्वारा गुजरात चुनाव के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किये जाने का फायदा गुजरात के चुनावों में तो देखने को मिला ही,साथ ही भाजपा ने इस घोषणा के साथ ही आगामी आम चुनाव के लिये अपनी चुनावी तैयारी शुरू कर दी.काँग्रेस के लिये फिर से अगले चुनाव के लिये प्रधानमंत्री पद के लिये अपने उम्मीदवार की घोषणा करना काफी मुश्किल काम होगा.मनमोहन सिंह को फिर से प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करना संभव नही.सोनिया गाँधी के २००४ के 'त्याग' के कारण वह भी इस पद की उम्मेदवार नही हो सकती है.पुराने काँग्रेसी नेताओं में अर्जुन सिंह,प्रणव मुखर्जी भी अब कही इस पद के लिये हाशिये पर चले गये हैं.युवा चेहरे के रूप में राहुल गाँधी ही एक ऐसे नेता नजर आते है,जिन्हे की इस पद के लिये काँग्रेस सामने ला सकती हैं.
देश में एक स्थिर और मजबूत सरकार ही आंतरिक और बाह्य समस्याओं से निपट सकती हैं.सरकार परमाणु करार के मुद्दे को एक बार छोड भी दे तो ऐसी स्थिति में वाम दल महँगाई और अन्य मुद्दों पर काँग्रेस को केंद्र में घेरेगी.सरकार में रहते हुये मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाने का दायित्व वाम दल कर रही हैं और आने वाले समय में भी करती रहेगी.ऐसी स्थिति में केंद्र में चल रही सरकार को कमजोर माना जायेगा और हो सके तो यह आने वाले चुनाव में एंटी इनकम्बेंसी का कारण बनेगा.
काँग्रेस के लिये नये साल में अपनी स्थिति मजबूत करने के ज्यादा अवसर हैं.अगर वह राज्यों में होने वाले विधान सभा चुनावों में सही कदम उठाते हुये चुनाव जीतते जाये,तो वापस सत्ता में आने के अच्छे अवसर हैं.भाजपा के लिये अपने राज्यों की सत्ता बचाने की चुनौती के साथ साथ नये राज्यों में भी उपस्थिति दर्ज कराने की जरूरत हैं,तभी जाकर दिल्ली की सत्ता हाथ आयेगी.तीसरा मोर्चा भी नये साल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश करेगा.
नया साल राष्ट्र को चहुँमुखी विकास की ओर ले चले.यही कामना हैं.

कोई टिप्पणी नहीं: