मंगलवार, 13 नवंबर 2007

नंदीग्राम का संग्राम

नंदीग्राम में जारी गतिरोध पर हम अगर नज़र डाले तो हम पाते है कि इसे मीडिया ने समय समय पर इस घटना को आम घटना की तरह ही लिया. पिछले सप्ताह हुई हिंसा के बाद जब प्रधानमंत्री डाँ मनमोहन सिंह का बयान आया,तब जाकर इस घटना पर मीडिया ने भी ध्यान दिया. एक लोकतांत्रिक राज्य में किस तरह एक जिला पिछले ग्यारह महीने से प्रशासन के अधीन नही हैं. राज्य सरकार द्वारा जब वहाँ यह घोषणा कर दी गयी कि यहाँ विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिये भूमि का अधिग्रहण नही किया जायेगा, तब वहाँ किसी तरीके की हिंसा होना वाकई किसी के हित में नही है. यह मुख्य रूप से वर्चस्व की लडाई का एक उदाहरण मात्र हैं.
नंदीग्राम मे जारी हिंसा के लिये राज्य सरकार जिम्मेदार है. राज्य सरकार का यह नैतिक दायित्व बनता हैं कि वहाँ कानून का शासन लागू हो ताकि लोगों में यह विश्वास जगे कि चंद मुठ्ठी भर लोग हथियार के बल पर कहीं कब्जा जमाकर ये नहीं कहे कि ये क्षेत्र हमारे द्वारा शासित है. अभी जो स्थिति उत्पन्न हुई है उसमे कहीं न कहीं १९७० के दशक में बंगाल में जारी हिंसा की झलक मिलती है. लेकिन स्थिति अब काफी भिन्न है.
केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की तैनाती के बाद भी हिंसा की खबरें सुनने में आ रही है इसका मुख्य कारण वहाँ कि स्थानीय पुलिस के द्वारा मदद नही किया जाना बताया जा रहा है.अगर स्थानीय पुलिस का यही रवैया रहा तो वहाँ सामान्य स्थिति लाने में काफी समय लग सकता हैं. केंद्र द्वारा अतिरिक्त बल भी भेजा जा रहा है लेकिन जब तक स्थानीय लोगो से समर्थन नही मिलेगा तब तक कुछ नही हो सकता हैं.
राजनेताओं,सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और बुद्धिजीवियों के इसके समर्थन मे आने के बाद मीडिया ने भी इस खबर को ज्यादा तवज्जों दी. वाम दलों के घटक दल जब इसके विरोध में हो गये है,इससे समझा जा सकता है कि माकपा बचाव की मुद्रा में आ गयी हैं. माकपा समर्थकों के द्वारा ही नंदीग्राम में मेधा पाटकर को नहीं जाने दिया गया,फिर विपक्षी पार्टी के द्वारा बंद का सफल होना भी इस बात कि ओर इशारा करता है कि राज्य सरकार इस मुद्दे पर बुरी तरह विफल हुई हैं.स्थिति का जायजा लेकर वहाँ जल्द से जल्द कानून का शासन लागू करना ही राज्य सरकार की पहली जिम्मेदारी बनती हैं.तीस साल के शासन के बाद अगर सरकार ऐसा करने में अक्षम है तो यह समझ लेना चाहिए कि सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है.

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